POCSO Act में नागपुर पीठ का फैसला गलत मिसाल बन सकता था जिसे तत्काल खारिज करना आवश्यक था

Feb 08, 2021
Source: jagran.com

[ प्रो. रसाल सिंह ]: हाल में बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के एक फैसले ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। यह निर्णय बाल अपराधों को रोकने से जुड़े POCSO Act से संबंधित वर्ष 2016 के एक मामले से जुड़ा था। इस मामले में नागपुर एकल पीठ की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने POCSO Act को एक तरह से पुनर्परिभाषित करते हुए उसकी बहुत सीमित और प्रतिगामी व्याख्या की। उन्होंने 12 वर्षीय एक बच्ची पर हुए  यौन हमले के लिए नागपुर सत्र न्यायालय द्वारा POCSO Act के तहत दोषी ठहराए गए 39 वर्षीय व्यक्ति सतीश बंधु रगड़े को इस अपराध से मुक्त कर दिया कि इसमें स्किन टू स्किन यानी शारीरिक संपर्क नहीं हुआ।

उनके अनुसार चूंकि आरोपित से बच्ची का शारीरिक संपर्क नहीं हुआ तो उस पर POCSO Act नहीं लगाया जा सकता। उनका यह निर्णय POCSO Act की सीमित समझ और इस कानून में अंतर्निहित भावना की घोर उपेक्षा का सूचक है। ऐसे में उनके इस फैसले पर व्यापक जनाक्रोश स्वाभाविक ही था। यही कारण है गनेडीवाला की प्रोन्नति भी रुक गई। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने बांबे हाईकोर्ट में अतिरिक्त न्यायाधीश गनेडीवाला की स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की जो मंजूरी दी थी, उसे वापस ले लिया है। इसके पीछे उनके इसी फैसले को वजह माना जा रहा है। 

न्यायिक प्रक्रिया पर गंभीर सवाल 

दरअसल इस निर्णय ने सिर्फ उक्त न्यायाधीश की न्यायिक समझ ही नहीं, अपितु समूची न्यायिक प्रक्रिया पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस असंवेदनशील निर्णय में POCSO Act की यह परिभाषा इस अर्थ में विशेष रूप से खतरनाक और परेशान करने वाली है, क्योंकि यह बच्चों पर होने वाले हमलों से संबंधित मामलों में निचली अदालतों के लिए भविष्य में एक उदाहरण बन सकती है। यह परिभाषा इसलिए भी बेचैन करती है, क्योंकि यह पीड़ित के संरक्षण की जगह उत्पीड़क को संरक्षण प्रदान करती है। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त अपराध के लिए POCSO Act के अनुभाग आठ के तहत तीन साल कारावास की सजा दी गई थी, जबकि न्यायाधीश द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के अंतर्गत मात्र एक वर्ष के कारावास की ही सजा दी गई है। 

यह निर्णय न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया की सीमाओं को भी उजागर करता है। इसलिए बार-बार न्याय व्यवस्था के सुधार और न्यायिक प्रक्रिया को अधिक संवेदनशील, समयबद्ध और जवाबदेह बनाए जाने की मांग उठती रहती है।

सुप्रीम कोर्ट ने बंबई उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी

इस मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के माध्यम से तुरंत हस्तक्षेप किया और उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करते हुए इस प्रतिगामी निर्णय पर रोक लगाकर इसकी समीक्षा की मांग की। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस निर्णय पर रोक भी लगा दी। उच्चतम न्यायालय ने न सिर्फ इस निर्णय के खिलाफ याचिका दायर करने की अनुमति दी है, बल्कि महाराष्ट्र सरकार और आरोपित को दो सप्ताह बाद होने वाली अगली सुनवाई के लिए नोटिस भी जारी कर दिया है। केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय द्वारा इस मामले का संज्ञान लिया जाना स्वागतयोग्य है। चूंकि इस अपरिपक्व निर्णय से एक गलत परंपरा कायम होने की आशंका थी इसलिए इस गलती को समय से दुरुस्त किया जाना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी था।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग भी हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ मुखर

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी बाल विरोधी इस निर्णय के खिलाफ उच्चतर पीठ में पुर्निवचार याचिका दायर करने के लिए महाराष्ट्र सरकार को निर्देशित किया है। राष्ट्रीय महिला आयोग भी इस निर्णय के खिलाफ मुखर है। तमाम बाल अधिकार संरक्षण और महिला अधिकार संगठनों के लंबे संघर्ष और प्रयासों के परिणामस्वरूप ही वर्ष 2012 में POCSO Act लागू किया गया था। यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के मासूमों को उत्पीड़न से बचाने हेतु बनाया गया था। इस कानून में बालक-बालिका दोनों को ही संरक्षण देने का प्रविधान किया गया है। 

उनके यौन उत्पीड़न के दोषी व्यक्तियों के लिए सामान्य से अधिक सख्त सजा का प्रविधान किया गया है। POCSO Act के अनुभाग सात में इसके लिए पर्याप्त सख्ती की गई है। फिर वर्ष 2018 में संशोधित इस कानून में 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के साथ दुष्कर्म के दोषी व्यक्ति के लिए मृत्युदंड का उपबंध जोड़ा गया। हालांकि इतने सख्त प्रविधानों के बावजूद इसमें दोष सिद्धि की दर चिंता का संकेत करती है। यूं तो यह यह कानून बच्चों को यौन उत्पीड़न आदि से संरक्षण प्रदान करने के लिए अस्तित्व में आया था, परंतु यह अपने उद्देश्य में आवश्यक रूप से सफल होता नहीं दिखता। 

अपराधी को सजा नहीं मिलती और पीड़ित को न्याय नहीं मिलता तो सामाजिक ढांचा जर्जर होने लगता

इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी कानून अपराधों की रोकथाम और समस्या के समाधान का एकमात्र तरीका नहीं, बल्कि एक तरीका मात्र ही होता है। अपराध के लिए समुचित और समयबद्ध दंड का प्रविधान न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक समाजों का मूलभूत लक्षण है। जब अपराधी को सजा नहीं मिलती और पीड़ित को समुचित और समयबद्ध न्याय नहीं मिलता तो सामाजिक ढांचा जर्जर होने लगता है।

न्यायिक सुधारों के अभाव में सवाल उठते रहेंगे जैसे नागपुर की अदालत से उठे

न्यायिक सुधारों की इसी आवश्यकता को देखते हुए ही मोदी सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने की पहल की थी। उसका उद्देश्य न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए और न्यायिक प्रक्रिया को गतिशील, समयबद्ध और वहनीय बनाना ही था। हालांकि यह कोशिश कॉलेजियम व्यवस्था वाली न्यायपालिका को रास नहीं आई और उसने यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। न्यायिक सुधारों के अभाव में ऐसे सवाल आने वाले दिनों में भी उठते रहेंगे जैसे नागपुर की अदालत से उठे हैं। ऐसे में यह समय न्यायपालिका के लिए भी आत्मविश्लेषण का है कि वह सुधार के लिए सक्रियता दिखाए।

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( लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )

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