दिल्ली में फैक्ट्री लाइसेंस प्रक्रिया को आसान बनाने की ओर ध्यान दे सरकार
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संपत तोषनीवाल। वर्तमान कानूनों की समय समय पर बदलती सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार समीक्षा नहीं होने से किस प्रकार अनेक कानूनी प्रविधान अप्रासंगिक और अनुपयोगी बनकर नागरिकों के लिए कष्टदायक हो जाते हैं। हालांकि ऐसे कई मामले हो सकते हैं, लेकिन दिल्ली नगर निगम का फैक्ट्री लाइसेंस से संबंधित मामला इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 की धारा 416 (1) के अनुसार, दिल्ली में किसी भी औद्योगिक इकाई की स्थापना करने से पूर्व निगम आयुक्त से लिखित अनुमति लेना आवश्यक है। इसी अनुमति को फैक्ट्री लाइसेंस कहा जाता है। दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 की धारा 416 (2) के अनुसार आयुक्त मात्र दो कारणों से यह अनुमति देने से इन्कार कर सकता है। पहला, आबादी का घनत्व और दूसरा यदि प्रस्तावित औद्योगिक इकाई के कारण आस-पड़ोस से कोई बाधा उत्पन्न हो।
ऐसे में पहले यह जानना आवश्यक है यह प्रविधान क्यों बना? दरअसल वर्ष 1957 में जब दिल्ली नगर निगम अधिनियम लागू हुआ तब दिल्ली में एक भी अधिकृत औद्योगिक क्षेत्र नहीं था और किसी भी स्थान पर उद्योग लग सकता था। अत: शहर के व्यवस्थित विकास की दृष्टि से यह प्रविधान तब आवश्यक था। इसके अतिरिक्त, उस समय पानी और बिजली की आपूर्ति भी नगर निगम के पास थी। अत: इन सुविधाओं की पर्याप्त उपलब्धता भी सुनिश्चित करना आवश्यक था।
अब हम आज की स्थिति को समझते हैं। आज दिल्ली का औद्योगिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। आज दिल्ली में 29 अधिकृत एवं 22 अधिसूचित यानी कुल 51 ओद्योगिक क्षेत्र हैं जो मात्र उद्योग लगाने के लिए ही स्थापित, विकसित, आवंटित और निर्धारित किए गए हैं। इनके बाहर अब दिल्ली में कोई उद्योग स्थापित नहीं हो सकता। इससे यह स्वत: स्पष्ट है किनिगम आयुक्त द्वारा अनुमति से इन्कार कर सकने के उपरोक्त दोनों आधार दशकों पहले ही अर्थहीन और अप्रासंगिक हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त पानी, बिजली, प्रदूषण, अग्निशमन और औद्योगिक इकाइयों के पंजीकरण आदि समेत उद्योगों से जुड़े सभी विषयों का नियमन करने के लिए अलग अलग स्वतंत्र विभाग या अधिकरण बने हुए है। उद्योगों के संचालन से जुड़ा कोई भी विषय अब नगर निगमों के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। फैक्ट्री लाइसेंस दशकों से भ्रष्टाचार और उत्पीड़न का पर्याय बना हुआ है, लेकिन कानूनी समीक्षा के अभाव और निहित स्वार्थवश इसे अब तक लागू रखा गया है।
यद्यपि कहने को इस लाइसेंस की प्रक्रिया लगभग गत एक दशक से ऑनलाइन हो गई है, लेकिन इसकी जटिल प्रक्रिया के कारण गत 63 वर्षो में दिल्ली के कुल उद्योगों में से अब तक 25 प्रतिशत इकाइयों को भी यह जारी नहीं हुआ है। उसमें से भी आज प्रभावी लाइसेंसों की संख्या तो और भी कम है, क्योंकि नवीनीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी है। इस मद से निगमों को नगण्य आय होती है, जबकिउनके फैक्ट्री लाइसेंस विभागों पर प्रति वर्ष करोड़ों रुपये निर्थक खर्च होते हैं।
इसके आगे की कहानी तो और भी रोचक है। लघु उद्योग भारती सहित दिल्ली के अनेक औद्योगिक संगठन दशकों से फैक्ट्री लाइसेंस के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं। वर्ष 2015-16 में दिल्ली के तीनों नगर निगमों के सदनों ने फैक्ट्री लाइसेंस को समाप्त करने के लिए प्रस्ताव पारित कर दिल्ली सरकार को यह कहते हुए भेज दिया कि दिल्ली नगर निगम अधिनियम संसद का कानून है, अत:इसे संसद द्वारा संशोधित करने हेतु आगे की कार्रवाई की जाए। लेकिन इस संबंध में अब तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका है।
वर्ष 2018 में लघु उद्योग भारती ने यह विषय केंद्रीय शहरी विकास मंत्रलय के समक्ष उठाया। मंत्रलय ने सभी संबंधित पक्षों यथा नगर निगम आयुक्तों, गृह मंत्रलय व दिल्ली विकास प्राधिकरण आदि से पर्याप्त विचार-विमर्श करने के पश्चात जुलाई 2019 में फैक्ट्री लाइसेंस को कानून संशोधन के द्वारा समाप्त करने की संस्तुति गृह मंत्रलय को भेज दी, लेकिन नगर निगमों, राज्य और केंद्र सरकार की उदासीनता एवं नीहित स्वार्थी तत्वों द्वारा बार-बार उत्पन्न अड़चनों के कारण एक अत्यावश्यक जनहितकारी कार्य गृह मंत्रलय के स्तर पर आज तक अधूरा पड़ा है।
वर्ष 2017 में संपन्न दिल्ली नगर निगमों के चुनाव के समय जारी अपने घोषणा पत्रों में भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी दोनों ने फैक्ट्री लाइसेंस को दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में समाप्त करने का वादा किया था, लेकिन दिल्ली के लाखों उद्यमी आज तक इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। दिल्ली में कल-कारखानों की स्थापना करने के लिए सक्षम प्राधिकरण से लाइसेंस हासिल करना पड़ता है, जो अब व्यावहारिक नहीं है, लिहाजा इस व्यवस्था में बदलाव होना चाहिए।