भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डा कृष्णन राघवन के मुताबिक वायु प्रदूषण भूमि की सतह ठंडी करने वाले सोलर रेडिएशन (सौर विकिरण) को कम करता है। पृथ्वी की सतह उच्च स्तर तक गर्म नहीं होगी तो वाष्पीकरण भी कम हो जाएगा। इससे वर्षा में गिरावट

Aug 23, 2021
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नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। वायु प्रदूषण ने स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र को तो प्रभावित किया ही है, ताजा अनुसंधान और विशेषज्ञ बताते हैं कि अब यह भारत में मानसून की वर्षा पर भी असर डाल रहा है। ‘एंथ्रोपोजेनिक एरोसोल्स एंड द वीकनिंग ऑफ द साउथ एशियन समर’ नामक नई रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण मानसून को अनियमित वर्षा पैटर्न की ओर धकेल रहा है। प्रदूषण से मानसून बहुत अधिक परिवर्तनशील हो सकता है। मतलब एक वर्ष सूखा पड़ सकता है और उसके बाद अगले वर्ष बाढ़ आ सकती है। यह अनियमित पैटर्न वर्षा में समग्र कमी की तुलना में अधिक चिंताजनक है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट ''क्लाइमेट चेंज 2021: द फिजिकल साइंस बेसिस'' में भी यह चिंता जताई गई है। जलवायु माडल के परिणाम बताते हैं कि एंथ्रोपोजेनिक एरोसोल फोर्सिंग हाल की ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा में कमी पर हावी रही है। 1951 से 2019 के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून की औसत वर्षा में गिरावट भी आई है। भविष्य में भी यह प्रवृत्ति जारी रहने की संभावना है जिसमें वायु प्रदूषण की इसमें महत्वपूर्ण योगदान देने की अपेक्षा है। चिंताजनक यह भी कि भारत में पिछले दो दशकों में वायु प्रदूषण में खासी वृद्धि देखी गई है। द स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारत ने 2019 में पीएम 2.5 के कारण 9,80,000 मौतें हुईं।

सेंटर फार एटमासफेरिक साइंसेज़ आइआइटी दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर डा दिलीप गांगुली कहते हैं, वायु प्रदूषण से दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा में 10 से 15 की कमी आने की संभावना है। कुछ स्थानों पर यह कमी 50 फीसद तक हो सकती है। प्रदूषण से मानसून की शुरुआत में भी देरी हो सकती है। दरअसल, वायु प्रदूषण भूमि द्रव्यमान को उच्च स्तर तक गर्म नहीं होने देता। प्रदूषक कणों की उपस्थिति के कारण भूमि का ताप धीमी गति से बढ़ता है। मसलन, सतह का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस है जबकि वायु प्रदूषण की उपस्थिति के परिणामस्वरूप तापमान 38 डिग्री सेल्सियस या 39 डिग्री सेल्सियस तक सीमित हो जाएगा।

सिविल इंजीनियरिंग विभाग, आइआइटी कानपुर के प्रमुख प्रोफेसर एसएन त्रिपाठी बताते हैं कि एरोसोल्स में एक मजबूत अक्षांशीय और ऊर्ध्वाधर ग्रेडिएंट (ढाल) होती है जो वातावरण में मौजूद है। इससे कंवेक्शन (संवहन) का दमन होगा और धीरे-धीरे दक्षिण-पश्चिम मानसून की औसत वर्षा में कमी आएगी। सर्वाधिक प्रभावित वे क्षेत्र होंगे जहां प्रदूषण का स्तर अधिक होगा।

वैज्ञानिकों के अनुसार एरोसोल के वर्षा पर दो प्रकार के प्रभाव होते हैं- प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष। वर्षा पर एरोसोल के प्रत्यक्ष प्रभाव को एक रेडिएटिव (विकिरण) प्रभाव कहा जा सकता है जहां एरोसोल सीधे सोलर रेडिएशन (सौर विकिरण) को पृथ्वी की सतह तक जाने से रोकते हैं। वर्षा पर अप्रत्यक्ष प्रभाव की दूसरी घटना में, एरोसोल सोलर रेडिएशन (सौर विकिरण) को अवशोषित करते हैं। इससे बादल और वर्षा गठन प्रक्रियाएं बदलती हैं।

इंडियन इंस्टीटूट आफ ट्रापिकल मीट्रियोलाजी (भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान) के वैज्ञानिक डा कृष्णन राघवन के मुताबिक, वायु प्रदूषण भूमि की सतह ठंडी करने वाले सोलर रेडिएशन (सौर विकिरण) को कम करता है। पृथ्वी की सतह उच्च स्तर तक गर्म नहीं होगी तो वाष्पीकरण भी कम हो जाएगा। इससे वर्षा में गिरावट आएगी। कुछ एरोसोल ऐसे भी हैं जो सोलर रेडिएशन (सौर विकिरण) को अवशोषित करते हैं, लेकिन ऐसे मामलों में भी रेडिएशन (विकिरण) सतह पर पहुंचने तक कम हो जाएगा। इस तरह के एरोसोल वातावरण को गर्म कर देंगे और इसे कहीं ज्यादा स्थिर कर देंगे जिससे मानसून का संचालन कमजोर हो जाएगा और अंततः मानसून की वर्षा में कमी आएगी।

 

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