सीआरपीसी की धारा 319 लागू करने का उद्देश्य किसी ऐसे व्यक्ति को बच निकलने से रोकना है, जो वांछित है: इलाहाबाद हाईकोर्ट
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जस्टिस विकास बुधवार की खंडपीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 319 को लागू करने का मूल उद्देश्य है किसी ऐसे व्यक्ति को बच निकलने से रोकना है, जो मुकदमे की सुनवाई का सामना करने लायक है।
गौरतलब है कि सीआरपीसी की धारा 319 के तहत, न्यायालय को किसी भी जांच, या किसी अपराध के ट्रायल के दौरान अपराध के दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति दी गई है। दूसरे शब्दों में सीआरपीसी की धारा 319 ट्रायल कोर्ट को उस व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने की शक्ति देती है, जिसका नाम चार्जशीट में नहीं है, अगर उस व्यक्ति की संलिप्तता के सबूत ट्रायल/जांच के दौरान सामने आते हैं। हाईकोर्ट ने मौजूदा मामले में इस बात को रेखांकित किया कि एक बार जब मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि उसके सामने रिकॉर्ड पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, जो मुकदमे में किसी व्यक्ति को सम्मन करने के लिए उपलब्ध है, तो सीआरपीसी की धारा 319 के तहत शक्तियों का आह्वान किया जाता है।
कोर्ट ने आगे कहा, "सीआरपीसी 1973 की धारा 319 के तहत जिस चरण पर विचार किया जाता है, वह ट्रायल के समापन से पहले का एक चरण है और इस प्रकार, केवल एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मजिस्ट्रेट की प्रथम दृष्टया यह राय होनी चाहिए कि वैसे दोषी को सम्मन करने के लिए पर्याप्त सामग्री और कारण मौजूद हैं, जिसका या तो प्राथमिकी में नाम नहीं है या यदि उसका नाम है, तो उसे चार्जशीट नहीं किया गया है या बरी किया जा चुका है।"
बेंच रामेश्वर एवं अन्य द्वारा दायर एक पुनरीक्षण याचिका पर विचार कर रही थी जिसमें सत्र न्यायाधीश, महोबा की अदालत के उस आदेश को चुनौती दी गयी थी, जिसमें आरोपी को सीआरपीसी की धारा 319 के तहत गैर इरादतन हत्या (आईपीसी की धारा 304 के तहत दंडनीय) के अपराध के संबंध में तलब किया गया था। पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि उन्हें तलब करने की पूरी कवायद अवैध थी, क्योंकि उन्होंने अपराध नहीं किया है और मुकदमे का सामना करने के लिए सम्मन जारी करने का कोई अवसर / प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता था। दूसरी ओर ट्रायल कोर्ट के आदेश का बचाव करते हुए, ए.जी.ए ने तर्क दिया कि प्राथमिकी में निहित आरोप के विवरण से, तथा पीडब्ल्यू के बयान में पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं के नाम को इंगित किया गया है और आगे वहां सीआरपीसी की धारा 319 के तहत शक्ति का प्रयोग करने के लिए रिकॉर्ड पर पर्याप्त सबूत थे। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि सीआरपीसी की धारा 319 को समाहित किया जा रहा था तो नियोजित शब्द थे: "किसी अपराध की किसी भी जांच या ट्रायल के दौरान, यह साक्ष्य से प्रकट होता है", जो दर्शाता है कि मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी की धारा 319 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए संतोषजनक आधार होना चाहिए।
हालांकि, कोर्ट ने कहा कि संतुष्टि का स्तर अलग-अलग मामले में भिन्न-भिन्न होता है और संतुष्टि के स्तर के अनुसार, जांच को लागू किया जाना चाहिए क्योंकि आरोप तय करने के चरण में प्रथम दृष्टया मामले से अधिक कुछ चीजें होनी चाहिए। "... यह बहुत अच्छी तरह से कहा जा सकता है कि एक बार जब मजिस्ट्रेट को पता चलता है कि ट्रायल में किसी व्यक्ति को तलब करने के लिए उसके सामने पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, जिसे शुरू करने का प्रस्ताव है, तो सीआरपीसी की धारा 319 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल किया जाएगा।" अब मामले के तथ्यों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता (मृतक के भाई) द्वारा दर्ज प्राथमिकी में, पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं को आरोपी के रूप में रखा गया था और इससे भी अधिक, धारा सीआरपीसी की 161 और 164 के तहत दर्ज बयान में, भी उनके नाम मौजूद हैं। कोर्ट ने यह भी देखा कि पीडब्ल्यू के बयान में, पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं के नाम प्रकट हुए हैं और इस प्रकार, कोर्ट ने कहा, कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र में था और उसके पास पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं को बुलाने का अधिकार था।
कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज करते हुए कहा,
"जहां तक इस तर्क को पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं के वकील द्वारा इस तथ्य के संबंध में उठाए जाने की मांग की गई है कि उन्होंने अपराध नहीं किया है और सह-अभियुक्तों में से एक का इकबालिया बयान, जिसका नाम प्राथमिकी में नहीं था, लेकिन उसके खिलाफ चार्जशीट दायर की गई थी, यह बचाव का मामला है। पुनर्विचार याचिकाकर्ताओं को ट्रायल शुरू होने के बाद बचाव का मौका दिया जाएगा।" केस टाइटल - रामेश्वर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य [आपराधिक पुनर्विचार याचिका संख्या – 2173/2022]