बेबस आम आदमी की अनदेखी, आम लोगों की मुश्किलें बढ़ाने वाला 'किसान आंदोलन'

Sep 08, 2021
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राजीव सचान। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने समक्ष दायर उस याचिका को पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ले जाने का आदेश दिया, जिसमें किसान संगठनों द्वारा बाधित सिंघु बार्डर को खोले जाने की मांग की गई थी। सिंघु बार्डर सोनीपत के निकट हरियाणा को दिल्ली से जोड़ता है। किसान संगठनों के धरने के कारण यह बीते नौ माह से वैसे ही बाधित है, जैसे उत्तर प्रदेश को दिल्ली से जोड़ने वाला गाजीपुर बार्डर और बहादुरगढ़ के समीप हरियाणा को दिल्ली से जोड़ने वाला टीकरी बार्डर। ये रास्ते सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद बाधित हैं कि धरने-प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश कुख्यात शाहीन बाग धरने के मामले में दिया था। इसके बाद भी वह किसान संगठनों के आंदोलन के सिलसिले में ऐसी ही टिप्पणी कर चुका है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है, क्योंकि सरकार तथाकथित किसान संगठनों के 

और उग्र हो जाने के भय से रास्ते खाली कराने से हिचक रही है और सुप्रीम कोर्ट किन्हीं अज्ञात कारणों से दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के प्रशासन को यह स्पष्ट आदेश देने से बच रहा है कि बाधित रास्ते खाली कराए जाएं। यह तब है, जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना यह कह चुके हैं कि लोग जानते हैं कि जब चीजें गलत होती हैं तो न्यायपालिका उनके साथ खड़ी होगी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक भी बताया था, लेकिन दिल्ली के सीमांत रास्तों पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए यही कहना होगा कि उनके इस बयान का कहीं कोई मूल्य-महत्व नहीं। यह हर लिहाज से एक निर्थक वक्तव्य साबित हुआ।

बाधित रास्तों के कारण दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के लाखों लोगों के अधिकारों को प्रतिदिन कुचला जा रहा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट आंखें बंद किए हुए है। आखिर लोग कैसे यह मान लें कि जब चीजें गलत होती हैं तो सुप्रीम कोर्ट उनके पक्ष में खड़ा होता है या फिर उनके अधिकारों की चिंता करता है? यह तो अन्याय और अनदेखी की मिसाल ही है कि नौ माह से लोग परेशान हो रहे हैं, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। इस अन्याय के लिए जितने जिम्मेदार सरकार और सुप्रीम कोर्ट हैं, उतने ही कथित किसान संगठन भी। वे इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि उनके धरनों के कारण हर दिन लाखों लोग परेशान होते हैं और उनके संसाधन एवं समय की बर्बादी होती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें लोगों को तंग करने में आनंद की अनुभूति हो रही है।

किसान संगठनों की धरनेबाजी केवल लोगों को परेशान ही नहीं कर रही, बल्कि उनके पेट पर लात मारने का भी काम कर रही है। बाधित रास्ते के कारण बहादुरगढ़ की औद्योगिक इकाइयां संकट में हैं और पंजाब में कम से कम तीन औद्योगिक प्रतिष्ठान किसान संगठनों की धरनेबाजी के कारण बंद हो चुके हैं। इसके चलते एक हजार से अधिक लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। इसके बाद भी किसान संगठनों का दावा है कि वे किसानों के साथ नौजवानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। वास्तव में तो वे नौजवानों के हितों से खिलवाड़ ही कर रहे हैं। वे छोटे किसानों के हितों की भी चिंता नहीं कर रहे। इसीलिए उनके आंदोलन में उनकी भागीदारी नहीं। कृषि कानून विरोधी आंदोलन वस्तुत: बड़े किसानों और आढ़तियों का आंदोलन है। और भी गौर से देखें तो यह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समर्थ किसानों का आंदोलन है। इस आंदोलन की प्रकृति ठीक वैसी ही है जैसी शाहीन बाग आंदोलन की थी। वह जिद और सनक पर सवार है। हर गुजरते दिन के साथ यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि इस आंदोलन का मूल मकसद विभिन्न किसान नेताओं की ओर से अपने राजनीतिक हित साधना है।

इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि किसानों की आड़ में नेतागीरी कर रहे नेता पंजाब और उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में दखल देने की तैयारी कर रहे हैं। इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन इसके लिए किसानों को मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए। कृषि कानून विरोधी आंदोलन में किसान उसी तरह मोहरा बनाए जा रहे, जैसे इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले आम लोग बनाए गए थे। जैसे इस संगठन का उद्देश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर और अन्ना हजारे का इस्तेमाल कर राजनीति में कूदना था, वैसे ही किसान संगठनों का मकसद किसानों को मोहरा बनाकर अपने लिए राजनीति का मैदान तैयार करना है। इसी कारण किसानों का ठगा जाना तय है। किसान संगठनों का यह कहना फिजूल है कि वे संविधान बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे दरअसल आम लोगों के संवैधानिक अधिकारों को कुचल ही नहीं रहे, बल्कि उनकी बेबसी पर अट्टहास भी कर रहे हैं।

मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत में यह अट्टहास राकेश टिकैत की ओर से यह कहकर किया गया कि हम संकल्प लेते हैं कि दिल्ली की सीमाओं पर धरना देना नहीं छोड़ेंगे, भले ही वहां हमारी कब्र क्यों न बन जाए? यह एलान सरकार और सुप्रीम कोर्ट को सीधी चुनौती ही नहीं, इन धरनों से आजिज आए लोगों को यह सख्त संदेश है कि कुछ भी हो जाए, हम तुम्हें इसी तरह परेशान करते रहेंगे।

किसान संगठनों के धरनों से परेशान हो रहे लोगों के सामने बेबस होकर रह जाने के अलावा और कोई उपाय नहीं, क्योंकि कोई भी उनकी नहीं सुन रहा- न पुलिस, न सरकारें और न ही अदालतें। पुलिस और सरकारों की मजबूरी समझ आती है, लेकिन आखिर अदालतों को किसका भय है? क्या वे भी किसान संगठनों की मनमानी के आगे असहाय हैं? पता नहीं सच क्या है, लेकिन जब आम आदमी इस तरह परेशान होता है तो वह केवल कुढ़ता ही नहीं है, बल्कि व्यवस्था के विभिन्न अंगों पर उसका भरोसा भी कम होता है और जब ऐसा होता है तो लोकतंत्र कमजोर होता है।

 

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