नीति आयोग द्वारा विभिन्न मानदंडों के आधार पर जारी राज्यों की सूचकांक के निहितार्थ

Dec 13, 2021
Source: https://www.jagran.com

नीति आयोग द्वारा हालिया जारी सूचकांक में बिहार की खराब रैंकिंग चर्चा में है। विपक्षी दल इसे सरकार की विफलता बता रहे हैं जबकि बिहार सरकार का पक्ष रखते हुए राज्य के ऊर्जा योजना एवं विकास विभाग के मंत्री ने सूचकांक पर आपत्ति जताई है।

अमरजीत कुमार। नीति आयोग ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें विभिन्न मानदंडों के आधार पर राज्यों की स्थितियों का आकलन किया गया है। इस रिपोर्ट या सूचकांक में अनेक मानदंडों पर बिहार की स्थिति बेहद खराब बताई गई है, जिस पर राज्य सरकार ने आपत्ति जताई है। नीति आयोग द्वारा जारी इस सूचकांक के सभी पक्षों की चर्चा होनी चाहिए, ताकि इसको लेकर उभरे मतभेद को समझा जा सके।

नीति आयोग द्वारा जारी किए जा रहे सूचकांक राज्य सरकारों की सामाजिक और आर्थिक विकास के विश्लेषण का माध्यम बनते हैं। ऐसे में खराब रैंकिंग पर कई प्रकार के राजनीतिक मायने निकालने की प्रवृत्ति आम हो गई है। गौरतलब है कि बिहार में सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण काम है। वहीं पिछले दिनों नीति आयोग द्वारा जारी बहुआयामी गरीबी सूचकांक में बिहार सबसे निचले पायदान पर रहा है, जबकि यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह सूचकांक राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) पर आधारित है। ऐसे में सूचकांक से संबंधित 12 घटकों जिसमें आवास, पेयजल, स्वच्छता, बिजली, खाना पकाने के ईंधन, स्कूल में नामांकन, पोषण, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य आदि से संबंधित आंकड़ों को शामिल किया गया है।

यही कारण है कि बिहार सरकार का आरोप है कि पुराने आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट में राज्य सरकार की उपलब्धियों का सही आकलन नहीं हो पाया है। वैसे नीति आयोग द्वारा भी नए सर्वेक्षण के आंकड़ों को शामिल करने की आवश्यकता का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है। यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के आंकड़ों के अनुसार बिहार की 39 फीसद आबादी बिजली की पहुंच से दूर थी, जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार (2019-20) बिहार की केवल 3.7 प्रतिशत आबादी ही बिजली की पहुंच से बाहर है, जो बिजली के क्षेत्र में बिहार की उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है। यदि वर्तमान स्थिति देखी जाए तो यह और भी बेहतर हुई है। उल्लेखनीय है कि बिजली बहुआयामी गरीबी सूचकांक में एक महत्वपूर्ण संकेतक है।

यही कारण है कि बिहार सरकार का आरोप है कि पुराने आंकड़ों पर आधारित रिपोर्ट में राज्य सरकार की उपलब्धियों का सही आकलन नहीं हो पाया है। वैसे नीति आयोग द्वारा भी नए सर्वेक्षण के आंकड़ों को शामिल करने की आवश्यकता का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है। यहां यह देखना महत्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के आंकड़ों के अनुसार बिहार की 39 फीसद आबादी बिजली की पहुंच से दूर थी, जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार (2019-20) बिहार की केवल 3.7 प्रतिशत आबादी ही बिजली की पहुंच से बाहर है, जो बिजली के क्षेत्र में बिहार की उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है। यदि वर्तमान स्थिति देखी जाए तो यह और भी बेहतर हुई है। उल्लेखनीय है कि बिजली बहुआयामी गरीबी सूचकांक में एक महत्वपूर्ण संकेतक है।

समग्रता में निकले निष्कर्ष : वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं बैठक में ‘2030 सतत विकास हेतु एजेंडा’ के तहत सदस्य देशों द्वारा 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) तथा 169 उद्देश्यों को अंगीकृत किया गया है। इन्हीं सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रदर्शन के आधार पर नीति आयोग कई सूचकांक जारी करता है। इसी क्रम में पहली बार सतत विकास लक्ष्य शहरी सूचकांक जारी किया गया है। यह सूचकांक और डैशबोर्ड एसडीजी स्थानीयकरण को और मजबूत करेंगे तथा शहर के स्तर पर एसडीजी लक्ष्यों की निगरानी बेहतर करेंगे, क्योंकि यह शहरी स्थानीय निकाय स्तरीय डाटा, निगरानी और रिपोर्टिग पर आधारित व्यवस्था है। मुद्दा यह है कि नीति आयोग द्वारा जारी इन रैंकिंग के आधार पर राज्यों के विकास कार्यो का विश्लेषण विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा करना आम बात हो गई है। आमतौर पर खबरों में भी प्राप्त रैंकिंग को प्रमुखता के साथ दिखाया जाता है और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब सूचकांक में बेहतर और खराब प्रदर्शन वाले राज्यों को रैंकिंग में दर्शाया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि केवल रैंक के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना थोड़ी जल्दबाजी होगी।

समग्रता में निकले निष्कर्ष : वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं बैठक में ‘2030 सतत विकास हेतु एजेंडा’ के तहत सदस्य देशों द्वारा 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) तथा 169 उद्देश्यों को अंगीकृत किया गया है। इन्हीं सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रदर्शन के आधार पर नीति आयोग कई सूचकांक जारी करता है। इसी क्रम में पहली बार सतत विकास लक्ष्य शहरी सूचकांक जारी किया गया है। यह सूचकांक और डैशबोर्ड एसडीजी स्थानीयकरण को और मजबूत करेंगे तथा शहर के स्तर पर एसडीजी लक्ष्यों की निगरानी बेहतर करेंगे, क्योंकि यह शहरी स्थानीय निकाय स्तरीय डाटा, निगरानी और रिपोर्टिग पर आधारित व्यवस्था है। मुद्दा यह है कि नीति आयोग द्वारा जारी इन रैंकिंग के आधार पर राज्यों के विकास कार्यो का विश्लेषण विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा करना आम बात हो गई है। आमतौर पर खबरों में भी प्राप्त रैंकिंग को प्रमुखता के साथ दिखाया जाता है और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब सूचकांक में बेहतर और खराब प्रदर्शन वाले राज्यों को रैंकिंग में दर्शाया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि केवल रैंक के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना थोड़ी जल्दबाजी होगी।

नीति आयोग द्वारा जारी सूचकांक को विरोध का माध्यम बना चुकी विपक्षी पार्टियां कई महत्वपूर्ण पक्षों को दरकिनार देती हैं, ताकि राजनीतिक उद्देश्य पूरे हो सकें। इसी क्रम में पिछले दिनों बिहार में विपक्षी पार्टियों द्वारा जहरीली शराब से मृत्यु की घटना को तूल दिया गया, वहीं शराबबंदी कानून को कठोरता से लागू करने के बजाय इसे लागू करने के औचित्य पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि शराबबंदी कानून राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है।

 

वहीं दूसरी ओर इस कानून के सकारात्मक पक्ष पर चुप्पी साधने की प्रवृत्ति आम हो गई है। उल्लेखनीय है कि नीति आयोग के संबंधित सूचकांक में संकेतकों में यातायात दुर्घटना के कारण मृत्यु दर और हत्या की दर को भी शामिल किया गया है। ऐसे में बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू होने के बाद अपराध दर और सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। ऐसे में यहां विरोधाभास की स्थिति प्रतीत होती है कि जहां एक तरफ रैंकिंग में निम्न स्थान पर सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है, वहीं सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक नीतियों का विरोध किया जा रहा है।

नीति आयोग द्वारा जारी सूचकांक को विरोध का माध्यम बना चुकी विपक्षी पार्टियां कई महत्वपूर्ण पक्षों को दरकिनार देती हैं, ताकि राजनीतिक उद्देश्य पूरे हो सकें। इसी क्रम में पिछले दिनों बिहार में विपक्षी पार्टियों द्वारा जहरीली शराब से मृत्यु की घटना को तूल दिया गया, वहीं शराबबंदी कानून को कठोरता से लागू करने के बजाय इसे लागू करने के औचित्य पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि शराबबंदी कानून राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है।

 

वहीं दूसरी ओर इस कानून के सकारात्मक पक्ष पर चुप्पी साधने की प्रवृत्ति आम हो गई है। उल्लेखनीय है कि नीति आयोग के संबंधित सूचकांक में संकेतकों में यातायात दुर्घटना के कारण मृत्यु दर और हत्या की दर को भी शामिल किया गया है। ऐसे में बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू होने के बाद अपराध दर और सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। ऐसे में यहां विरोधाभास की स्थिति प्रतीत होती है कि जहां एक तरफ रैंकिंग में निम्न स्थान पर सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है, वहीं सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक नीतियों का विरोध किया जा रहा है।

यह सही है कि स्वास्थ्य समेत विनिर्माण और बिजली के क्षेत्र में व्यापक विकास के बावजूद बिहार के पिछड़ेपन की चर्चा सर्वत्र होती है। जबकि चर्चा इसके विभिन्न आयामों पर होनी चाहिए। साथ ही सामाजिक और आर्थिक विकास का मूल्यांकन करते समय संपन्न राज्यों से तुलना करने के बजाय समय आधारित मूल्यांकन ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। बिहार जैसे राज्य को उच्च जनसंख्या के साथ संसाधनों की कमी से जूझना पड़ रहा है। इसके पीछे पूर्व की नीतियां कहीं अधिक जिम्मेदार हैं। उदाहरणस्वरूप हरित क्रांति का लाभ कुछ सीमित राज्यों को मिला, जबकि भारतीय रेल की मालभाड़ा सामान्यीकरण की नीति ने इस राज्य में औद्योगिक विकास को भी प्रभावित किया है।

 

ऐसे में बिहार की गरीबी, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों पर सरकार से अपेक्षा की जाती है कि इसके लिए एक बहुआयामी और व्यापक रणनीति की रूपरेखा तैयार करे। गौरतलब है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग हमेशा से उठती रही है, क्योंकि विशेष दर्जे के लिए बिहार कई मापदंडों को पूरा करता है जिसमें पिछड़ेपन, अंतरराष्ट्रीय सीमा, प्रति व्यक्ति आय और कम राजस्व के आधार महत्वूपर्ण हैं। हालांकि दुर्गम क्षेत्र, कम जनसंख्या, आदिवासी क्षेत्र जैसे पैमाने पर यह सटीक नहीं उतरती है, लेकिन बिहार जैसे राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देने से संबंधित दी जाने वाली रियायतों की काफी जरूरत है। विशेष राज्य का दर्जा पाने वाले राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा दी गई राशि में 90 प्रतिशत अनुदान और 10 प्रतिशत रकम बिना ब्याज के कर्ज के तौर पर मिलती है। जबकि दूसरी श्रेणी के राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा 30 प्रतिशत राशि अनुदान के रूप में और 70 प्रतिशत राशि कर्ज के रूप में दी जाती है। इसके अलावा विशेष राज्यों को कारपोरेट, एक्साइज, कस्टम, इनकम टैक्स आदि में भी रियायत मिलती है। केंद्रीय बजट में योजनागत व्यय का 30 प्रतिशत हिस्सा विशेष राज्यों को मिलता है। महत्वपूर्ण है कि विशेष राज्यों द्वारा किसी वित्तीय वर्ष में खर्च नहीं हुआ पैसा अगले वित्त वर्ष के लिए जारी हो जाता है।

 

शोध अध्ययन बताते हैं कि विशेष राज्य का दर्जा किसी राज्य के लघु, कुटीर और बड़े उद्योग के विकास में काफी मददगार साबित हो रहे हैं। ऐसे में बिहार जैसे राज्यों के लिए केंद्र सरकार को विशेष राज्य के तर्ज पर कोई वैकल्पिक रियायत देने पर विचार करना चाहिए, क्योंकि एसडीजी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पिछड़े राज्यों को सीमित संसाधन और आर्थिक बोझ की चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है।

[शोधार्थी, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार]

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