संदेह कितना भी पुख्ता हो,सबूत का स्थान नहीं ले सकताः सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के आरोपी को बरी करने के फैसले को सही ठहराया

Feb 26, 2021
Source: hindi.livelaw.in

संदेह कितना भी पुख्ता हो,परंतु वह सबूत का स्थान नहीं ले सकता है,यह दोहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक हत्या के मामले में आरोपी को बरी करने के फैसले को सही ठहराया है। इस मामले में अभियोजन का मामला यह था कि आरोपी ने मृतक को पहले कुछ जहरीला पदार्थ खिला दिया और बाद में बिजली के करंट से उसकी हत्या कर दी थी।

ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया और बाद में हाईकोर्ट ने भी उसे बरी किए जाने के फैसले को बरकरार रखा था।

जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए कहा कि इस बात की प्रबल संभावना है कि मृतक (शव का परीक्षण करने वाले डॉक्टर की राय के अनुसार) शराब के नशे में था और हो सकता है कि उसने सोते समय गलती से विद्युत तार को छू लिया हो।

कोर्ट ने कहा कि,''इस अदालत के कई न्यायिक फैसलों से यह अच्छी तय किया जा चुका है कि संदेह कितना भी पुख्ता,परंतु वह सबूत/प्रूफ का स्थान नहीं ले सकता है। एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसे उचित संदेह से परे दोषी साबित न कर दिया जाए।''

अदालत ने कहा कि किसी आरोपी के खिलाफ कोई मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तभी पूरी तरह से स्थापित माना जा सकता है,जब वह परिस्थितियां पूरी तरह से स्थापित हो चुकी हों,जिनसे उसके अपराधी होने का निष्कर्ष निकाला जा रहा है और मामले के स्थापित तथ्य केवल आरोपी के अपराधी होने की परिकल्पना के अनुरूप हों। वहीं सबूतों की एक श्रृंखला इस तरह पूरी होनी चाहिए कि उसमें किसी भी ऐसे निष्कर्ष के लिए कोई ऐसा उचित संदेह न रह जाए,जो आरोपी को निर्दोष मानने के अनुरूप हों। साथ ही सबूतों की इस श्रृंखला से यह भी दिखना चाहिए कि सभी मानवीय संभवानाओं के अनुसार आरोपी ने ही अपराध किया है। शांति देवी बनाम राजस्थान राज्य (2012) 12 एससीसी 158 का उल्लेख करते हुए, पीठ ने परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत दोहराएः

1.जिन परिस्थितियों से अपराधबोध की स्थिति को साबित किया जाना है,वो आवश्यक रूप से ठोस या दृढ़ता से स्थापित की जानी चाहिए।

2.परिस्थितियाँ एक निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जो आरोपी के अपराधबोध की ओर इशारा करती हों।

3.जब सारी परिस्थितियों को एक साथ देखा जाए तो पूर्ण रूप से ऐसी श्रृंखला बननी चाहिए ताकि सभी मानवीय संभावनाओं के अनुसार इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि अपराध अभियुक्त द्वारा किया गया था और किसी अन्य द्वारा नहीं।

4.दोषसिद्धि बनाए रखने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य पूर्ण होने चाहिए और आरोपी द्वारा अपराध करने के अलावा किसी भी अन्य परिकल्पना को बनाने में अक्षम होने चाहिए। वहीं ऐसे साक्ष्य केवल अभियुक्त के अपराध के अनुरूप ही न हों,बल्कि उसकी बेगुनाही के लिए असंगत भी हों।

पीठ ने अपील को खारिज करते हुए कहा कि, ''अभियोजन पक्ष अभियुक्त के अपराध को स्थापित करने में बुरी तरह से विफल रहा है। ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त/प्रतिवादी को बरी करके कुछ गलत नहीं किया है। ट्रायल कोर्ट के फैसले में कोई ऐसी दुर्बलता नहीं है, जिसके लिए उसमें हस्तक्षेप किया जाए ... बरी किए जाने के आदेश के खिलाफ दायर एक अपील का स्थान हमेशा से ही सजा के आदेश के खिलाफ दायर एक अपील से पूरी तरह से अलग होता है। बरी होने के खिलाफ दायर अपील में, जहां अभियुक्त के पक्ष में निर्दोषता का अनुमान प्रबल होता है, अपीलीय अदालत तब ही बरी होने के आदेश में हस्तक्षेप करेगी जब कोई विकृति हो। इस मामले में, यह नहीं कहा जा सकता है कि हाईकोर्ट ने अभियुक्त की बरी करने के लिए जो कारण दिए हैं, वे सबूतों की व्यापक प्रशंसा पर कमजोर, अस्थिर या सीमाबद्ध हैं।''

 

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