किशोर न्याय अधिनियम के अंतर्गत विधि विरोधी किशोर तथा किशोर न्याय बोर्ड

Mar 12, 2021
Source: hindi.livelaw.in

किशोर न्याय अधिनियम से संबंधित पिछले आलेख में इस अधिनियम का सामान्य परिचय तथा इस अधिनियम में दिए गए विशेष शब्दों की परिभाषाओं का अध्ययन किया गया था। इस आलेख के अंतर्गत विधि विरोधी किशोर के संबंध में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया तथा किशोर न्याय बोर्ड के गठन पर चर्चा की जा रही है।

किशोर न्याय बोर्ड इस अधिनियम की धारा 4 किशोर न्याय बोर्ड से संबंधित धारा है। इस धारा के अंतर्गत किशोर न्याय बोर्ड का गठन किया गया है। इस धारा में विधि-विरोधी कार्यों में लिप्त किशोरों के मामलों में जाँच एवं सुनवाई आदि हेतु 'किशोर न्याय बोर्ड' के गठन तथा इसके सदस्यों की नियुक्ति, उनकी अर्हताएँ एवं पद-च्युति के बारे में भी उपबंध है।

बोर्ड में तीन सदस्य होंगे जिनमें से एक महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट, और दो सामाजिक कार्यकर्ता होंगे। बोर्ड के दो सामाजिक कार्यकर्ता सदस्यों में से कम से कम एक महिला होना अनिवार्य है। बोर्ड को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट यथास्थिति की शक्तियाँ प्रदत्त की गयी हैं।

इस धारा की उपधारा (5) में यह उपबंधित है कि (i) राज्य द्वारा किशोर न्याय बोर्ड के किसी भी सदस्य की नियुक्ति को उचित जांच के पश्चात् समाप्त किया जा सकता है, यदि उसने अपनी किसी शक्ति का 4. दुरुपयोग किया हो; या (ii) उसे किसी नैतिक अधमता के लिए दोषसिद्ध ठहराया गया हो, और उसे अपराध के लिए क्षमा प्रदान न की गयी हो, या (iii) वह बिना किसी उचित कारण के निरन्तर तीन माह तक बोर्ड की कार्यवाही से अनुपस्थित रहा हो या उसने वर्ष में हुई बोर्ड की कुछ बैठकों के तीन-चौथाई से कम बैठकों में उपस्थिति दर्ज न कराई हो।

किशोर न्याय बोर्ड की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य विधि विरोधी किशोरों को सुधारने के प्रति यह सुनिश्चित करना भी है कि उनके आपराधिक कृत्यों के विधिक परिणामों का उनके भावी जीवन पर दुष्प्रभाव न पढ़े और उनके चरित्र पर लांछन या कलंक न लगने पाये।

यही कारण है कि किशोर को अपराधी कहा जाकर 'विधि विरोधी किशोर' कहा गया है। इसी प्रकार किसी विधि-विरोधी किशोर को दोषसिद्ध पाये जाने पर उसे 'दण्डादेश' दिये जाने के बजाय दोषसिद्धि पर पारित आदेश दिया जाता है, ताकि वह 'कैदी' कहलाये जाने के से बच सके।

कर्नाटक राज्य बनाम हर्षद के वाद में उच्च न्यायालय ने विनिश्चित किया कि जहां किशोर न्याय अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत किशोर न्याय बोर्ड स्थापित किये गये हैं। यहां बोर्ड को विधि का उल्लंघन करने वाले किशोर/बालकों के विचारण की अनन्य अधिकारिता होगी तथा सेशन न्यायालय या फास्ट ट्रेक न्यायालयों को ऐसे किशोरों के मामलों में विचारण की अधिकारिकता नहीं होगी।

इस प्रकरण में चूंकि किशोर न्याय बोर्ड का गठन 27 जुलाई, 2003 की अधिसूचना के अधीन हो चुका था इसलिये सिद्धदोष किशोर को धारा 15 के अन्तर्गत उचित गृह में भेजे जाने का आदेश उचित था क्योंकि उसे दंडित किया जाना अधिनियम के उद्देश्य के विपरीत होगा ।

किशोर न्याय बोर्ड द्वारा पारित आदेश के विरुद्ध अपील के अधिकार को अत्यधिक सीमित रखा गया है ताकि विधि-विरुद्ध किशोर को न्यायिक प्रक्रिया के अधीन कम-से-कम समय रहना हो। बोर्ड द्वारा किशोर को निर्दोष पाया जाने पर या यह पाया जाने पर कि वह लावारिश या उपेक्षित नहीं है।

इस आदेश के विस्द्ध अपील नहीं हो सकेगी, अर्थात् किशोर न्याय बोर्ड का निर्णय अन्तिम होगा परनु बोर्ड द्वारा किशोर को दोषसिद्ध या उपेक्षित घोषित किये जाने के विरुद्ध केवल एक अपील सत्र न्यायालय में हो सकती है, जिसका निर्णय अन्तिम होगा। दूसरे शब्दों में, किशोर के मामले में सत्र न्यायालय का फैसला अन्तिम होगा और इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील का प्रावधान नहीं है।

विधि-विरोधी किशोर के मामले में उच्च न्यायालय को केवल पुनरीक्षण की शक्ति प्राप्त है न कि अपील की। किशोर न्याय नियम, 2007 के नियम

13 (6) (d) में यह उपबन्धित है कि बोर्ड द्वारा किशोर अपराधियों के प्रकरण को एक माह की अवधि में निपटा लिया जाना चाहिये, जो विशिष्ट दशा में दो माह तक हो सकती है।

संप्रेक्षण गृह इस अधिनियम की धारा 8 में संप्रेक्षण गृह (Observation Home) के बारे में प्रावधान है। संप्रेक्षण गृह में ऐसे विधि विरोधी किशोरों को रखा जाता है जिनके विरुद्ध कोई जाँच लम्बित है। ऐसे संप्रेक्षण गृहों की स्थापना राज्य शासन द्वारा अथवा किसी करार के अन्तर्गत निजी संगठनों द्वारा की जा सकती है। इनमें किशोर के लिए निवास की सुविधा, भरण-पोषण और चिकित्सा परीक्षण और उपचार की व्यवस्था के साथ-साथ उनके लिए उपयोगी उपजीविका की सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई जाती हैं। संजय प्रसाद यादव बनाम बिहार राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रश्न था कि किसी ऐसे किशोर की जिसकी दोषसिद्धि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अधीन हुई है और जिसे जाँच के दौरान संप्रेक्षण गृह में रखे जाने हेतु आदेशित किया गया था, किशोर-आयु पूर्ण कर लेने के परिणामस्वरूप उसे कारागार में अन्तरित किया जाना आवश्यक है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि किशोर की किशोरावस्था की आयु पूर्ण हो जाने पर भी उसे कारागार या अन्यत्र स्थानान्तरित नहीं किया जाएगा और मामले के अन्तिम फैसले तक उसे संप्रेक्षण गृह में ही रखा जाएगा ।

विशेष गृह

धारा 8 में विचाराधीन किशोरों को अस्थायी रूप से रखे जाने हेतु संप्रेक्षण गृहों की व्यवस्था की गयी है जबकि प्रस्तुत धारा 9 में विधि विरोधी किशोरों के लिए विशेष गृह (Special Home) का प्रावधान है। इन विशेष गृहों में अपराध के लिए सिद्धदोष पाये गये किशोरों को उनके सुधार हेतु रखे जाने को व्यवस्था है। इन गृहों में भी आयु, अपराध की प्रकृति और मानसिक तथा शारीरिक हैसियत के आधार पर किशोरों का वर्गीकरण करके उन्हें अलग अलग रखा जाता है जिससे उनकी देखरेख एवं पुनर्वास की व्यवस्था हो सके। यहाँ किशोरों को शिक्षा एवं तकनीकी प्रशिक्षण की सुविधा भी उपलब्ध करायी जाती है जिससे वह एक सामान्य नागरिक बन सकें। शीला बरसे बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिये कि किशोर अपराधियों को किसी भी दशा में जेल नहीं भेजा जाना चाहिए तथा उन्हें किशोर न्याय अधिनियम के उपबन्धों का लाभ देकर विशेषगृह या किशोर गृह जैसी किसी अन्य सुधारक संस्था में रखा जाना चाहिए।

हवासिंह बनाम हरियाणा राज्य के वाद में विधि-विरोधी किशोर को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अधीन सिद्धदोष पाया जाने के कारण आजीवन कारावास से दण्डित करके पंजाब बोस्टल अधिनियम, 1926 के अन्तर्गत बोस्टल संस्था में भेजा गया। वहाँ 21 वर्ष की आयु पूरी होने के परिणाम स्वरूप उसे शेष सजा भोगने के लिए कारागार में अन्तरित कर दिया गया और उसने अगले सात वर्ष जेल में बिताए। उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थी को तत्काल रिहा किये जाने के आदेश देते हुए विनिश्चित किया कि अभियुक्त का विचारण सेशन न्यायालय द्वारा किया गया होने के कारण वह सात वर्ष की अधिकतम निरोध की अवधि पूरा कर चुका है। अत: उसे तत्काल रिहा किया जाए।

बाल अपराधियों पर प्रथम इत्तिला रिपोर्ट

धारा 11 के अनुसार पुलिस को ऐसे बाल-अपराधियों के विरुद्ध प्रथम इत्तिला रिपोर्ट रजिस्टर से संकोच करना चाहिये। जिन्होंने सात वर्ष से कम दण्ड से दण्डनीय अपराध किया है और जो गम्भीर प्रकृति का नहीं है। इसके बजाय पुलिस को चाहिये कि ऐसे विधि-विरोधी बालकों/किशोरों द्वारा कारित अपराध को अपनी सामान्य दैनिक डायरी में अभिलिखित करे। इसी प्रकार किशोर न्याय नियम, 2007 के नियम 11 (9) के अन्तर्गत किशोर अपराधियों को गिरफ्तार करना वर्जित है जब तक कि ऐसा करना न्यायिक हित में अनिवार्य न हो। पर हत्या, गम्भीर उपहति, बलात्कार आदि जैसे संगीन अपराध करने वाले बाल या किशोर अपराधियों की गिरफ्तारी की जा सकती है परन्तु उन्हें भी यथाशीघ्र मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे वह उनके विषय में उचित निर्णय ले सके तथा उनका प्रकरण किशोर न्याय बोर्ड को भेज दे। इस अधिनियम की धारा 12 के प्रावधानों से स्पष्ट है कि विधि-विरोधी किशोरों के प्रति उदारता दर्शाते हुए उन्हें यथासंभव जमानत पर रिहा किये जाने की व्यवस्था की गयी। इस धारा के अधीन किशोर व्यक्तियों को छोड़ दिए जाने कीअनुशंसा की गयी है। जब तक कि इस बात की संभावना न हो कि जमानत पर छोड़े जाने से किशोर व्यक्ति घोर अपराधी की कुसंगति में पड़ सकता है या उसके लिये नैतिक खतरा उत्पन्न हो सकता है या न्याय का उद्देश्य विफल होने की संभावना है।

इस अधिनियम की धारा 12 के प्रावधानों से स्पष्ट है कि विधि-विरोधी किशोरों के प्रति उदारता दर्शाते हुए उन्हें यथासंभव जमानत पर रिहा किये जाने की व्यवस्था की गयी। इस धारा के अधीन किशोर व्यक्तियों को छोड़ दिए जाने कीअनुशंसा की गयी है। जब तक कि इस बात की संभावना न हो कि जमानत पर छोड़े जाने से किशोर व्यक्ति घोर अपराधी की कुसंगति में पड़ सकता है या उसके लिये नैतिक खतरा उत्पन्न हो सकता है या न्याय का उद्देश्य विफल होने की संभावना है। सुनील तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य' के वाद में सत्र न्यायालय ने किशोर अपराधी को जमानत की अर्जी इस आधार पर नामंजूर कर दी कि उसकी मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर वह किशोर आयु पूर्ण कर चुका था। परन्तु उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि आयु सिद्ध करने का दायित्व अभियुक्त का नहीं था और न्यायालय को स्वप्रेरणा से इसका निर्धारण करके सुनिश्चित करना चाहिये था कि अभियुक्त को किशोर-नयाय अधिनियम 1956 का लाभ देते हुए जमानत पर छोड़ा जा सकता है अथवा नहीं। आशय यह है कि सामान्यत: किशोर व्यक्ति को धारा 12 का लाभ देते हुए जमानत पर छोड़ा जाना चाहिए जब तक कि ऐसा न करने के लिए समुचित कारण न हो।
 

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