आते-जाते जूतों को भी करते चलें सैनिटाइज

Apr 24, 2020

आते-जाते जूतों को भी करते चलें सैनिटाइज

हाथ धोकर ही नहीं, जूते साफ कर भी कोरोना वायरस को मात दे सकते हैं। जालंधर स्थित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, एनआइटी) के विशेषज्ञों ने जूतों को विसंक्रमित (सैनिटाइज) करने वाले शू सैनिटाइजिंग पौंड का आइडिया दिया है। इसे घर, परिसर, संस्थान के मुख्य द्वार या फुटपाथ पर आसानी से तैयार किया जा सकता है। लागत भी करीब पांच हजार रुपये है, जोकि बाजार में मिलने वाले महंगे शू सैनिटाइजिंग मैट्स की तुलना में बेहतर विकल्प है।

संस्थान के डायरेक्टर डॉ. ललित कुमार अवस्थी ने बताया कि प्रायोगिक तौर पर इसे कैंपस के प्रवेश द्वार के एक ओर बनवाया है। साथ ही, अनिवार्य कर दिया है कि हर व्यक्ति इसका उपयोग करने के बाद ही संस्थान में प्रवेश करेगा। एनआइटी के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के डॉ. शैलेंद्र बाजपेयी और इंडस्टियल प्रोडक्शन विभाग के प्रोफेसर आरके गर्ग व अनीष सचदेवा ने बताया कि घर, परिसर या संस्थान के प्रवेश द्वार पर चार फुट बाई छह फुट आकार का या सुविधानुरूप आकार में सिंगल ईंटों की जुड़ाई कर ट्रे नुमा ढांचा बना लें। इसमें एक से दो हजार रुपये तक खर्च आएगा। उसके बाद इसी साइज की एक स्पंज शीट (फोम का गद्दा) बिछा दें। एक फीसद सोडियम हाइपोक्लोराइट को पांच लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करके गद्दे के ऊपर डाल दें ताकि गद्दा इससे भीग जाए। संस्थान में आने वाले हर व्यक्ति को इसके ऊपर से पैदल चलकर आना होगा। इसे पार करने में में 22 से 28 सेकेंड का समय लगेगा। इतनी देर में जूतों की सोल सैनिटाइज होकर कोरोना मुक्त हो जाएगी। इसे 24 घंटे इस्तेमाल किया जा सकता है। एक बार में पांच लीटर सॉल्यूशन लगेगा। विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे प्रमाणित किया है कि एक फीसद सोडियम हाइपोक्लोराइट का घोल कोरोना को मारने के लिए कारगर है।

एनआइटी जालंधर के मेन गेट पर बनाए गए शू सैनिटाइजेशन पौंड का उपयोग करते संस्थान के डायरेक्टर डॉ. ललित कुमार अवस्थी क्योंकि जूते भी फैला रहे संक्रमण..

एनआइटी के विशेषज्ञों ने बताया कि उन्होंने पहले चीन, अमेरिका, इटली सहित तमाम देशों में कोरोना संक्रमण के ट्रेंड का अध्ययन किया। उससे यह स्पष्ट हुआ कि कोरोना के फैलने में लोगों के जूते भी बड़ा कारक साबित हो रहे हैं। खास तौर पर इटली में कोरोना फैलने के सबसे ज्यादा केस जूतों की वजह से आए थे। कोरोना वायरस जूतों के सोल में चार से छह दिन जिंदा रहता है। खास तौर पर टीपीआर सोल, पीयू सोल, पीवीसी और इवा सोल में। लेदर के सोल वाले जूते अब चलन में काफी कम रह गए हैं। इस समय महंगे से महंगे स्पोर्ट्स शूज से लेकर तमाम प्रकार के जूतों में टीपीआर, पीयू, पीवीसी या इवा सोल का ही इस्तेमाल हो रहा है। भारतीय परंपरा को दिया श्रेय

एनआइटी के विशेषज्ञों ने कहा कि उन्हें इस पौंड के निर्माण का आइडिया प्राचीन भारतीय संस्कृति और परंपरा से ही मिला, जिसमें धार्मिक स्थलों में प्रवेश से पहले जूते बाहर उतारने और पैरों को पानी से धोकर ही प्रवेश करने की परंपरा है। वहीं से आइडिया निकाला कि क्यों न जूतों को इसी तरह सैनिटाइज किया जाए। इसके बाद केमिकल इंजीनियर्स की मदद ली गई। एक सप्ताह में एनआइटी के विशेषज्ञों की टीम ने यह पौंड बना डाला।

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