कोर्ट दस्तावेजों की प्रतियां आरटीआई कानून के बजाय, कोर्ट नियमों के तहत आवेदन करके पाई जा सकती हैंः

Mar 05, 2020

कोर्ट दस्तावेजों की प्रतियां आरटीआई कानून के बजाय, कोर्ट नियमों के तहत आवेदन करके पाई जा सकती हैंः

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि न्यायिक पक्ष में सूचनाओं की प्राप्य/ प्रमाणित प्रतियों को हाईकोर्ट नियमों के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा और ऐसी सूचनाओं को पाने के लिए आरटीआई एक्ट के प्रावधानों का सहारा नहीं लिया जाएगा। जस्टिस भानुमती, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने मुख्य सूचना आयुक्त बनाम गुजरात हाईकोर्ट व अन्य के मामले में कहा कि अदालत के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने के लिए अदालत के नियमों के तहत आवेदन करना चाहिए। मामले में मुख्य सूचना आयोग और गुजरात सूचना आयोग ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि उच्च न्यायालय के जिन नियमों के तहत दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति जारी की जाती है, वो सूचना के अधिकार के प्रावधानों से प्रबल होंगे। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि जब कोई व्यक्ति एक प्रति की मांग करता है तो वह उच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार जारी होना चाहिए। गुजरात हाईकोर्ट रूल्स, 1993 के नियम 151 के अनुसार, तीसरे पक्ष को दस्तावेजों की प्रतिलिपि प्रदान करने के लिए, उन्हें प्रमाणित प्रतियां मांगने के कारणों को बताते हुए एक हलफनामा दायर करना आवश्यक है। इसलिए, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या उपरोक्त नियम और आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों के बीच किसी प्रकार की विसंगति है। एक अन्य मुद्दा यह था: जब सूचना/प्रमाणित प्रतियां प्रदान करने के लिए दो मशीनरी हो- एक उच्च न्यायालय के नियमों के तहत और दूसरी आरटीआई अधिनियम के तहत, तब उच्च न्यायालय के नियमों में किसी असंगतता के अभाव में, प्रमाणित प्रति/सूचना प्राप्त करने के लिए क्या आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों का सहारा लिया जा सकता है? इन मुद्दों का जवाब देते हुए पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं: "आरटीआई अधिनियम के गैर‌ विरोधाभासी खंड (Non Obstante Clause) का मतलब भारत के संविधान के अनुच्छेद 225 के तहत तैयार किए गए उच्च न्यायालय के नियमों और आदेशों का निहित निरसन नहीं है, केवल असंगतता के मामले में उनका एक अधिरोही प्रभाव है। एक विशेष अधिनियम या नियम बाद के सामान्य अधिनियमों द्वारा अधिरोहित नहीं हो सकता क्योंकि बाद का अधिनियम एक गैर विरोधाभासी खंड के साथ उपलब्‍ध होता है, जब तक कि दोनों कानूनों के बीच स्पष्ट असंगतता न हो।" "गुजरात उच्च न्यायालय नियम का नियम 151 में तीसरे पक्ष के लिए शर्त रखता है कि उन्हें सूचना/दस्तावेज की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने के लिए या आवेदन/हलफनामा दायर करने के लिए आवश्यक आदेश प्राप्त करने के लिए उन कारणों को बताना होगा, जिनके लिए सूचना चाहिए, यह आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत नहीं है, लेकिन सूचना प्राप्त करने के लिए परिपाटी या फीस के भुगतान आदि के रूप में एक अलग प्रक्रिया का पालन करता है। आरटीआई अधिनियम और अन्य कानून के प्रावधानों के बीच अंतर्निहित असंगतता की अनुपस्थिति में, आरटीआई अधिनियम का अधिरोही प्रभाव लागू नहीं होगा।" "जब सूचना प्राप्त करने या प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी मशीनरी मौजूदा है, जो हमारे विचार में, एक बहुत ही सरल प्रक्रिया है, जो कि आवश्यक अदालती शुल्क के साथ एक आवेदन/शपथ पत्र दाखिल करना और उन कारणों को बताना है, जिनके लिए प्रमाणित प्रतियों की आवश्यकता है , हम आरटीआई अधिनियम की धारा 11 को लागू करने और बोझिल प्रक्रिया को अपनाने का कोई औचित्य नहीं पाते हैं। इसमें समय और राजकोषीय संसाधनों का अपव्यय होगा, जिससे आरटीआई अधिनियम की प्रस्तावना खुद बचने का इरादा रखती है। " "मुकदमेबाज की कार्यवाही से जुड़े दस्तावेजों और अन्य सूचनाओं की गोपनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से और उचित संतुलन बनाए रखने के लिए, हाईकोर्ट के नियम तीसरे पक्ष पर आवेदन/शपथ पत्र दायर करने के लिए जोर देते हैं ताकि दस्तावेजों की जानकारी/प्रमाणित प्रतियां प्राप्त की जा सकें।" पीठ ने रजिस्ट्रार सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया बनाम आरएस मिश्रा (2017) 244 डीएलटी 179 मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के दृष्टिकोण से भी सहमति व्यक्त की, जिसमें यह कहा गया था कि "यदि किसी अन्य कानून के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से सूचना प्राप्त की जा सकती है, तो आरटीआई अधिनियम का सहारा नहीं लिया जा सकता है।" इस दृष्टिकोण का बाद में कर्नाटक हाईकोर्ट ने अनुसरण किया। बेंच ने कहा- "हम दिल्ली उच्च न्यायालय के विचारों से पूरी तरह सहमत हैं। जब उच्च न्यायालय के नियम एक तंत्र प्रदान करते हैं, जिसके जरिए आवेदन/शपथ पत्र दाखिल करके जानकारी/प्रमाणित प्रतियां प्राप्त की जा सकती हैं, तो आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए।" केस का नाम: मुख्य सूचना अधिकारी बनाम हाईकोर्ट ऑफ गुजरात केस नं : CIVIL APPEAL NO (S) .1966-1967 Of 2020 कोरम: जस्टिस भानुमति, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय वकील:

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