केवल चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी उनकी गवाही को खारिज करने का आधार नहीं: सुप्रीम कोर्ट
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी के आधार पर उनकी गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता है।
जस्टिस उदय उमेश ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि यदि गवाहों ने आतंकित और भयभीत महसूस किया और कुछ समय के लिए आगे नहीं आए, तो उनके बयान दर्ज करने में देरी को पर्याप्त रूप से समझाया गया। इस मामले में हत्या के आरोपी ने अपील में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। चुनौती का एक आधार यह था कि इस मामले में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 161 और 164 के तहत चश्मदीद गवाहों द्वारा दिए गए बयानों को दर्ज करने में देरी अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक होगी।
यह तर्क दिया गया कि उक्त दो गवाहों की गवाही के अलावा आरोपी की दोषसिद्धि को सही ठहराने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं था। राज्य ने देरी को यह कहते हुए उचित ठहराया कि आरोपी द्वारा फैलाया गया आतंक इतने परिमाण का था कि संबंधित गवाह डर के मारे भाग गए थे। यह प्रस्तुत किया गया कि आरोपियों की गिरफ्तारी सहित जांच तंत्र द्वारा उचित कदम उठाए जाने के बाद ही गवाह सामने आए। अदालत ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए कहा,
यह सच है कि संबंधित चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज करने में कुछ देरी हुई, लेकिन केवल देरी के आधार पर उनकी गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता है।" कोर्ट ने आगे कहा कि रिकॉर्ड पर सामग्री निश्चित रूप से आरोपी द्वारा बनाए गए भय को स्थापित करती है। यदि गवाह आतंकित और भयभीत महसूस किया और कुछ समय के लिए आगे नहीं आया, उनके बयान दर्ज करने में देरी को पर्याप्त रूप से समझाया गया। रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं लाया गया है जो यह बताता हो कि अंतराल के दौरान गवाह अपनी सामान्य गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे।
इसलिए अदालत ने उनकी याचिकाओं को खारिज कर दिया।