नियोक्ता की वित्तीय अस्थिरता किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के पेंशन लाभ को रोकने का वैध आधार नहीं : पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट [निर्णय पढ़े]
नियोक्ता की वित्तीय अस्थिरता किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के पेंशन लाभ को रोकने का वैध आधार नहीं : पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट [निर्णय पढ़े]
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के पेंशन लाभ को रोकने के लिए नियोक्ता की वित्तीय अस्थिरता कोई वैध आधार नहीं है, क्योंकि सेवानिवृत्ति के बाद पेंशनभोगी के लिए गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए पेंशन ही आजीविका का एकमात्र स्रोत है।
सेवानिवृत्ति के 5 साल बाद अधूरी पेंशन के भुगतान का मामला
याचिकाकर्ता जो अबोहर नगर परिषद में इंस्पेक्टर के रूप में कार्य करती थी, ने यह तर्क दिया कि वह सेवानिवृत्ति की उम्र में सेवानिवृत्त हुई और वो सेवानिवृत्ति के सभी लाभ की हकदार थी, लेकिन उत्तरदाताओं द्वारा बिना किसी वैध औचित्य के इसमें देरी की गई और उसकी सेवानिवृत्ति के 5 साल बाद अधूरी पेंशन का भुगतान किया गया।
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ए. रंधावा बनाम पंजाब राज्य के मामले को बनाया गया आधार
याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि वह ए. रंधावा बनाम पंजाब राज्य के मामले में इस अदालत द्वारा दिए गए निर्णय को ध्यान में रखते हुए उक्त भुगतान पर ब्याज की हकदार है। उसने आगे कहा कि उसने पहले रिट याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था जहां अदालत ने प्रतिवादी को बिना किसी देरी के उसके सभी लाभ का भुगतान करने का निर्देश दिया था।
प्रतिवादी ने 'वित्तीय अस्थिरता' और 'निधियों की कमी' का दिया था हवाला
अदालत के इस निर्देश के अनुपालन में प्रतिवादी ने एक आदेश पारित किया जहां उसने स्वीकार किया कि वो वित्तीय अस्थिरता और 'निधियों की कमी' के कारण सभी पेंशन लाभ नहीं जारी कर सकता है। उसने यह भी स्वीकार किया कि अपीलकर्ता को अवकाश नकदीकरण और ग्रेच्युटी का भुगतान नहीं किया गया है। उच्च न्यायालय ने यह पाया कि डिवीजन बेंच ने पहले ही राम करन बनाम प्रबंध निदेशक, पेप्सू रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन व अन्य के मामले में यह उदाहरण दिया है और कहा है कि वित्तीय अस्थिरता किसी सेवानिवृत्त कर्मचारी के जीवन को पटरी से उतारने का एक वैध तर्क नहीं है क्योंकि पेंशन ही जीवन जीने का एकमात्र स्रोत है और वह गरिमापूर्ण जीवन जीने का हकदार है।
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अदालत ने की संविधान के अनुच्छेद 21 की चर्चा
अदालत ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जहां जीवन को एक गरिमापूर्ण जीवन के रूप में व्याख्यायित किया गया है जिसका मतलब केवल जीवन का आस्तित्व ही नहीं है बल्कि सभी सुविधाओं का आनंद लेने, जीवन के पर्याप्त मानक के साथ उचित जीवन की स्थिति है, जिसके लिए हर व्यक्ति हकदार है। इन मौलिक अधिकारों की मान्यता सुनिश्चित करने के लिए उचित कदम उठाकर किसी नागरिक के इन मानवाधिकारों का संरक्षण करना राज्य का कर्तव्य है।
अनुच्छेद 21 पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चमेली सिंह बनाम यू.पी. 1996 (2) एससीसी 549 में कहा है कि-
"किसी भी संगठित समाज में एक इंसान के रूप में जीने का अधिकार केवल मनुष्य की आम जरूरतों को पूरा करके सुनिश्चित नहीं किया जाता। यह केवल तभी सुरक्षित होता है जब उसे स्वयं को विकसित करने के लिए सभी सुविधाओं का आश्वासन दिया जाता है और उसे उन प्रतिबंधों से मुक्त किया जाता है जो उसके विकास को बाधित करते हैं। इस वस्तु को प्राप्त करने के लिए सभी मानव अधिकारों को नामित किया गया है। किसी भी सभ्य समाज में गारंटी से जीने का अधिकार भोजन, पानी, सभ्य पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और आश्रय के अधिकार में शामिल है और सभ्य समाज में इन सभी को शामिल किया गया है।"
जीवन यापन के मानक और गरिमापूर्ण जीवन के मूल प्रश्न की व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई ऐतिहासिक निर्णयों में की गई है जहाँ आश्रय का अधिकार एक गारंटीकृत अधिकार है और नागरिकों को आश्रय प्रदान करना राज्य का दायित्व है। इस मामले में याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकार के उल्लंघन में वित्तीय अनिश्चितता मुख्य आधार है और इस मुद्दे पर नगर परिषद, रतलाम, (1980) 4 एस.सी.163, बी.एल वढेरा बनाम भारत संघ, अखिल भारतीय इमाम संगठन बनाम भारत संघ और कपिला हिंगोरानी बनाम बिहार राज्य व ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही यह सिद्धांत निर्धारित कर दिया था कि, "जब मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का प्रश्न उठता है तो इस तरह के वित्तीय दिशा-निर्देश जारी नहीं किए जा सकते हैं, क्योंकि संस्था की वित्तीय कठिनाइयाँ किसी नागरिक के मौलिक अधिकार से ऊपर नहीं हो सकती हैं।"
अदालत द्वारा दिया गया आदेश
अदालत ने प्रति वर्ष 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज की अनुमति दी और साथ ही उत्तरदाताओं को इस आदेश के बाद 2 महीने की अवधि के भीतर उक्त राशि का भुगतान करने का निर्देश भी दिया है।
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