दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रोफेशनल कोर्स में कम उपस्थिति वाले छात्रों को राहत देने से किया इनकार

Nov 22, 2019

दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रोफेशनल कोर्स में कम उपस्थिति वाले छात्रों को राहत देने से किया इनकार

आईपी विश्वविद्यालय के एक छात्र को कक्षा में आवश्यक उपस्थिति नहीं होने के कारण एक साल पीछे कर देने के खिलाफ दायर याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है। विश्वविद्यालय ने उपस्थिति के नियम के क्लॉज 9 और 11 के तहत इस छात्र के खिलाफ कार्रवाई की है। एकल जज के फैसले को निरस्त करते हुए न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति आशा मेनन की खंडपीठ ने कहा कि बीए एलएलबी/बीबीए एलएलबी जैसे पेशेवर कोर्सों में कक्षा में उपस्थिति के बारे में जो नियम है उसको जरूरत से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। एकल जज की पीठ के फैसले के खिलाफ यह एलपीए दायर किया गया. एकल जज ने अपने आदेश में विश्वविद्यालय को कहा था - प्रतिवादी नौवें सेमेस्टर के छात्र को अगली कक्षा में प्रोन्नति दे देगा और अगर जरूरी हुआ तो इसके लिए एक्स्ट्रा क्लास के सन्दर्भ में उचित संशोधन करेगा। प्रतिवादी याचिकाकर्ता को बतायेगा क वह आठवें सेमेस्टर के लिए एक्स्ट्रा क्लास कैसे ले सकता है और इस सेमेस्टर के लिए परीक्षा वह कब दे सकता है। याचिकाकर्ता हलफनामे के रूप में प्रिसिपल, वीआईपीएस को वचन देगा कि वे इस क्लास में बैठेंगे। वर्तमान मामले में विवेकानंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के दो छो छात्र नैंसी सागर और प्रतीक सोलंकी को आठवें सेमेस्टर में रोक लिया गया क्योंकि क्लास में उनकी उपस्थिति पर्याप्त नहीं थी। इन दोनों छात्रों से कहा गया कि वे एक साल पिछले क्लास में ही रुक जाएं और अगले साल उस सेमेस्टर की परीक्षा दें और ऐसा करने पर उन्हें यह कोर्स पूरा करने में पांच साल की बजाय छह साल लग जाता। नैंसी की उपस्थिति कम इसलिए थी क्योंकि उसकी बांह में फ्रैक्चर हो गया था जबकि बहुत सारे मूट कोर्ट और संगीत प्रतियोगिताओं में शामिल होना प्रतीक की उपस्थिति में कमी का कारण था। विश्वविद्यालय की पैरवी करने वाले एएसजी मनिंदर आचार्य ने कहा कि अगली कक्षा में प्रोमोट होने के लिए जरूरी है कि छात्र की उपस्थिति 75% हो और उसका क्रेडिट स्कोर कम से कम 50% हो. पर ये दोनों छात्र इन दोनों ही आधार पर पिछड़ गए थे।

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उसने आगे कहा कि एकल जज का यह फैसला इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज करता है कि कक्षा में होने वाली पढ़ाई सीखने की प्रक्रिया का आवश्यक और अविभाज्य हिस्सा है और पर्याप्त उपस्थिति नहीं होने से किसी को भी नियमतः आगे की कक्षा में जाने से रोका जा सकता है भले ही उसके पास चौथे अकादमिक वर्ष में न्यूनतम 50% का क्रेडिट स्कोर क्यों न हो। विश्वविद्यालय ने यह भी कहा कि उपस्थिति का नियम बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया के कानूनी शिक्षा नियम, 2008 के अनुरूप बनाया गया है जिसमें कहा गया है कि डिग्री कोर्स के किसी भी छात्र ने अगर न्यूनतम 70% उपस्थिति हासिल नहीं की है तो उसे उस विषय के अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा में नहीं बैठने दिया जाएगा. हालांकि, उचित अधिकारी विशेष परिस्थिति में उपस्थिति की न्यूनतम 70% की सीमा को घटाकर 65% कर सकता है।
प्रतिवादी छात्रों के वकील संदीप सेठी ने कहा कि उपस्थिति कम होने को आधार बनाकर छात्र को अगले अकादमिक वर्ष में जाने से नहीं रोका जा सकता। यह भी कहा गया कि अध्यादेश 11 के क्लॉज 11.3(v)(ii) में जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है उसके अनुसार सिर्फ उन्हीं छात्रों को रोका जाएगा जिनके पास जरूरी क्रेडिट के साथ-साथ न्यूनतम उपस्थिति नहीं है और वर्तमान मामले में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों ही छात्रों के पास संबंधित अकादमिक वर्ष में न्यूनतम 50% का क्रेडिट है और इसलिए उन्हें अगले अकादमिक वर्ष में जाने से रोका नहीं जाना चाहिए। एकल जज ने इन दोनों क्लॉज की जिस तरह से व्याख्या की है उससे असंतुष्ट जज ने कहा कि अगले अकादमिक वर्ष में प्रोमोट होने के लिए छात्रों की क्लास में न केवल सभी कोर्सों को मिलाकर एक सेमेस्टर में 70% न्यूनतम उपस्थिति होनी चाहिए बल्कि उसे उस अकादमिक वर्ष में कम से कम कुल क्रेडिट का 50% क्रेडिट भी हासिल करना चाहिए. इन दोनों में से किसी भी एक के नहीं होने से छात्र को अगले अकादमिक वर्ष में नहीं जाने दिया जा सकता है। फैसला अदालत ने कहा : "बीए एलएलबी/बीबीए एलएलबी जैसे पेशेवर कोर्सों में कक्षा में उपस्थिति होने को जो महत्त्व दिया गया है उसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के इस बारे में फैसले हैं जिनमें कहा गया है कि उपस्थिति का प्रतिशत जैसी बातों के निर्णय की जिम्मेदारी अकादमिक निकायों के विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाना चाहिए और अदालत को इसमें हस्तक्षेप करने में जल्बादी नहीं दिखानी चाहिए बशर्ते कि जो निर्णय लिया गया है वह मनमाना नहीं हो, गैर कानूनी हो और संविधान का उल्लंघन करता हो।" इसलिए, अदालत ने कहा कि अगर किसी अकादमिक निकाय ने हर स्तर पर या कुल न्यूनतम लेक्चर में उपस्थित होने के बारे में नियम बनाया है तो अदालत को उसके प्रति सम्मान दिखाना चाहिए क्योंकि इसके पीछे सोच यह है कि इस क्षेत्र का विशेषज्ञ होने के कारण इस तरह का नियम बनाने के पहले उन्होंने अपना दिमाग लगाया होगा।

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