कूड़ाघर बनते शहर
कूड़ाघर बनते शहर
यह किसी के लिए भी आश्चर्य, शंका और शोध का विषय हो सकता है कि बड़े-बड़े दावों के बावजूद यूपी के शहरों में इतनी गंदगी क्यों दिखती है। राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षणों की रिपोर्ट भी इस बात की गवाही देते हैं। राज्य के 13 शहरों को स्मार्ट सिटी का तमगा तो मिल गया लेकिन, गंदगी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। इसका उदाहरण प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से बेहतर भला और क्या होगा। कचरा प्रबंधन को लेकर बनारस में बड़ी कसरत हुई। ऑनलाइन निगरानी से लेकर घर-घर कचरा उठान, सड़कों-गलियों व बाजारों में रोज झाड़ू लगाने के निर्देश दिए गए। स्वच्छता एप के जरिये ऑनलाइन शिकायतों का निस्तारण कर शिकायतकर्ता को बताने की बात कही गई। जीपीएस वाले कूड़ा वाहन, कूड़ाघर व कंटेनर को सिटी कमांड एंड कंट्रोल रूम से जोड़ा गया। कचरा प्रबंधन का जिम्मा एक-एक करके कई निजी कंपनियों को सौंपा गया लेकिन, नतीजा ढाक के तीन पात। सरकार का खजाना साफ हो गया लेकिन, गलियां और सड़कें न हो सकीं।यह कहानी केवल बनारस की नहीं है। मेरठ, आगरा, सहारनपुर से लेकर कानपुर-इलाहाबाद तक सबका यही हाल है। आप शिकायतें करते रहिए, कोई सुनने-देखने वाला नहीं है। यदि इंदौर व चंडीगढ़ ने कचरा प्रबंधन कर दिखाया है और देश के कई अन्य शहर भी जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं तो यूपी में इस मोर्चे पर भयावह सन्नाटा क्यों है। लखनऊ और बनारस में मान लें कुछ काम हो भी जाए लेकिन, जब तक संभल, बागपत, बहराइच, जालौन या चंदौली में जीवन नारकीय है तो प्रदेश को साफ सुथरा नहीं माना जा सकता। नगर निकायों में संसाधनों और कार्यसंस्कृति का घोर अभाव, चौतरफा भ्रष्टाचार और जनता में जागरूकता की कमी ऐसे कारण हैं जो सारी योजनाओं पर पानी फेर देते हैं। हम सब चाहते हैं कि सुबह सोकर उठें तो सड़कें और नालियां साफ हों लेकिन, हम रोज निराश होते हैं। यह विचलित कर देने वाली स्थिति है। इससे उबरना है तो सरकार को कमर कसनी होगी।
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