कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता इलाहाबाद हाईकोर्ट

Jan 21, 2020

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता इलाहाबाद हाईकोर्ट

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दो मस्जिदों की अजान के लिए लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति की मांग को खार‌िज कर दिया है। जस्ट‌िस पंकज मिठल और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित ने अपने आदेश में कहा, "कोई भी धर्म ये आदेश या उपदेश नहीं देता है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों के जर‌िए प्रार्थना की जाए या प्रार्थना के लिए ड्रम बजाए जाएं और यदि ऐसी कोई परंपरा है, तो उससे दूसरों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, न किसी को परेशान किया जाना चा‌हिए।" मामले में चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड ऑर्म्स, 2000 (7) एससीसी 282 के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत प्रदत्त अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं। ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के नियम 5 के तहत संबंधित प्राध‌िकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक स्‍थलों पर लाउडस्पीकर / पब्लिक एड्रेस सिस्टम/ ध्वनि उत्पादक यंत्र/ उपकरण या एम्पलीफायर का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मामले में याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्थलों पर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण और इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह उनकी धार्मिक परंपरा का एक अनिवार्य हिस्सा है और बढ़ती आबादी के मद्देनजर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल कर लोगों को प्रार्थना के लिए बुलाना आवश्यक हो गया है। हाईकोर्ट ने उक्त दलील को खारिज करते हुए कहा कि- "यह सच है कि जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1)के तहत गारंटीकृत है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार कर सकता है, हालांकि उक्त अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त अधिकार व्यापक स्तर पर अनुच्छेद 19 1) (ए) के अधीन है और इस तरह दोनों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और सामंजस्यपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए।" मामले में आचार्य महाराजश्री नरंद्रप्रसादजी आनंदप्रसादजी महाराज बनाम गुजरात राज्य, 1975 (1) एससीसी 11 के फैसले पर भरोसा किया गया। कोर्ट ने कहा कि मामले में शामिल मस्जिदें, जिस क्षेत्र में हैं, वो हिंदू और मुसलमानों की मिश्रित आबादी का इलाका है, और अतीत में इस मसले पर हुए विवादों ने गंभीर रूप ले चुके हैं। इसलिए अगर किसी भी पक्ष को साउंड एम्पलीफायरों का उपयोग करने की अनुमति दी जाती है तो दो समूहों के बीच तनाव बढ़ने की आशंका होगी। कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों ने लाउडस्पीकरों के उपयोग की अनुमति न देकर ठीक ही किया, विशेष रूप से उस इलाके में जहां दो धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी पैदा होने की संभावना थी, जिससे कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती थी।

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कोर्ट ने कहा कि "किसी भी क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी के साथ प्रशासनिक अधिकारियों की होती है और वो अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होते हैं और उन्हें ये सुनिश्चित करना होता है कि क्षेत्र की शांति और व्यवस्‍था भंग न हो और अगर किसी घटना के संबंध में कोई तनाव या विवाद हो तो उस पर सुलह और समझौता किया जा सकता है। इस प्रकार, उन पर तनाव कम करने और यह सुनिश्चित करने के जिम्‍मेदारी होती है कि क्षेत्र में शांति बनी रहे।" अदालत ने ध्वनि प्रदूषण और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य और शांति होने वाले नुकसान पर कहा- "... भारत में लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि शोर अपने आप में एक प्रकार का प्रदूषण है। वे स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभावों को लेकर पूरी तरह से सचेत भी नहीं हैं। हालांकि हाल के दिनों में इसके बारे में कुछ चिंता दिखाई दी है। " कोर्ट ने कहा कि, दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और ऐसे अन्य देशों में, लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर काफी सचेत हैं और वे अपनी कारों के हॉर्न भी नहीं बजाते हैं और हॉन्‍किंग को बुरा व्यवहार माना जाता है, क्योंकि इससे न केवल दूसरों को असुविधा होती है बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान होता है। ध्‍वनि प्रदूषण (V), IN RE, 2005 (8) SCC 796 के नियमों में कहा गया है और जहां सुप्रीम कोर्ट ने राय दी है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी आजादी किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, हालांकि ये निरपेक्ष नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी आवाज़ को बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को अपना मौलिक अधिकार बताने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक नागरिक को अपने घर में आराम और शांति से रहने का मौलिक अधिकार है। "सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो चुका है कि शोर मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावित डालता है। शोर बहरेपन, उच्च रक्तचाप, अवसाद, थकान और झुंझलाहट का कारण हो सकता है। अत्यधिक शोर से हृदय संबंधी बीमारियों, न्यूरोसिस और नर्वस ब्रेकडाउन जैसी ब‌ीमारियां हो सकती हैं। हाईकोर्ट ने कहा, हमारा स्पष्ट मत है कि कोर्ट को अपने असाधारण क्षेत्राधिकार को प्रयोग करते हुए इस मामले में किसी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करने से सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है, । उल्‍लेखनीय है कि पिछले साल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य में डीजे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था।

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