मंदी की मार
मंदी की मार
अब खुद सरकारी आंकड़ों से जाहिर हो गया है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है। लंबे समय से अर्थशास्त्री चर्चा कर रहे थे कि अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। इसे लेकर कई सुझाव भी आ रहे थे। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी कुछ दिनों पहले बताया था कि भारत की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं है और अगले चार सालों तक इसके सुधरने की कोई सूरत नजर नहीं आती। राजकोषीय घाटा बढ़ने के आंकड़े भी इस चिंता को गहराने लगे थे। मगर सरकार यह मानने को तैयार नहीं थी। खुद वित्तमंत्री ने कहा कि आर्थिक वृद्धि दर में कुछ सुस्ती जरूर आई है, पर यह मंदी का दौर नहीं है। अब खुद राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन ने बताया है कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी नीचे खिसक कर साढ़े चार फीसद पर पहुंच गई है। यह पिछले छह सालों का सबसे निचला स्तर है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भी जीडीपी पांच फीसद पर थी। अर्थव्यवस्था के इस स्थिति में पहुंचने की वजह विनिर्माण, औद्योगिक उत्पादन, कृषि, मत्स्य पालन आदि क्षेत्रों में सुस्ती और बिजली, डीजल आदि की खपत घटना बताया जा रहा है। अर्थव्यवस्था के इस स्तर पर पहुंच जाने से सरकार के सामने कई मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। यह केवल विपक्षी दलों के हमलों से पार पाने का मामला नहीं है, बल्कि इसके चलते अनेक जनकल्याणकारी योजनाएं बुरी तरह प्रभावित होंगी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की स्थिति और कमजोर होगी। हालांकि सरकार का दावा है कि वह जल्दी ही इस स्थिति से पार पा लेगी। सरकार का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था को पचास अरब डॉलर तक पहुंचाना है, पर अर्थव्यवस्था के इस स्तर पर पहुंच जाने से वह लक्ष्य बहुत दूर हो गया है। पहले ही विनिवेश की दर घट चुकी है, उसमें जीडीपी के लुढ़कने से इसके बढ़ने की संभावना काफी क्षीण हो गई है। विदेशी बैंक जीडीपी को ध्यान में रख कर ही कर्ज उपलब्ध कराते हैं, सो वहां भी कठिनाई आएगी। राजकोषीय घाटे को पाटना बड़ी चुनौती है, तिस पर जनकल्याणकारी योजनाओं को चलाए रखने के लिए सरकार को और कर्ज लेने पड़ेंगे, जो खासा जटिल हो सकता है। सरकार पहले ही रिजर्व बैंक से अपना लाभांश तय मात्रा से अधिक निकाल चुकी है, इसलिए वहां से कुछ सहारा मिलने की गुंजाइश भी नहीं बची है। कई बार बैंक दरों में कटौती करके बाजार की सेहत सुधारने के प्रयास हो चुके हैं, पर उसका भी कोई उल्लेखनीय असर नजर नहीं आया। ऐसे में जरूरत है कि सरकार पिछली गलतियों की समीक्षा करते हुए नए सिरे से रणनीति तय करे, तो शायद स्थिति में कुछ सुधार हो। औद्योगिक उत्पादन, विनिर्माण, खनन, बिजली उत्पादन आदि क्षेत्रों में मंदी की वजहें साफ हैं कि लोगों के पास पैसे की कमी है, जिसकी वजह से उन्होंने खपत पर अंकुश लगा दिया है। पिछले साल से ही वाहन उत्पादन का क्षेत्र सुस्त पड़ा हुआ है। बाजार का रुख ढीला है। आम उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री पर भी काफी असर पड़ा है। इसलिए जब तक लोगों की क्रयशक्ति नहीं बढ़ती, तब तक इन क्षेत्रों की सुस्ती नहीं टूटेगी। क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार सृजन के मोर्चे पर व्यावहारिक ढंग से काम करना होगा। कृषि क्षेत्र की दुर्दशा दूर करने के लिए कठोर परिश्रम की जरूरत है। देखना है, वह अर्थव्यवस्था की सुस्ती तोड़ने के लिए क्या रणनीति बनाती है।
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