'काम नहीं तो वेतन नहीं' का सिद्धांत तब लागू होगा जब नियोक्ता के किसी आदेश से कर्मचारी को काम से दूर नहीं रखा गया है सुप्रीम कोर्ट निर्णय पढ़े

Jul 29, 2019

'काम नहीं तो वेतन नहीं' का सिद्धांत तब लागू होगा जब नियोक्ता के किसी आदेश से कर्मचारी को काम से दूर नहीं रखा गया है सुप्रीम कोर्ट निर्णय पढ़े

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का सिद्धांत तब लागू होता है जब किसी आदेश द्वारा नियोक्ता ने उसे काम से दूर रखा है। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने इस स्थापित सिद्धांत को दुहराया है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपने काम से बिना छुट्टी के और बिना किसी कारण के अनुपस्थित रहता है तो वह उस अवधि के लिए वेतन का दावा नहीं कर सकता। वर्तमान मामले में 14.5.2009 को अनुशासनात्मक अथॉरिटी ने कर्मचारी को अनधिकृत अनुपस्थिति का दोषी पाया और जेनरल इंश्योरेंस (आचरण, अनुशासन और अपील) नियम, 1975 के नियम 23(ं) के तहत दो चरणों में उसके बेसिक वेतन को घटाने की सज़ा दी। बाद में उसके ख़िलाफ़ 26.06.2012 को दूसरा चार्ज शीट जारी किया गया और उसकी सेवा समाप्त कर दिय गई। उसी दिन उसकी नौकरी की अवधि भी समाप्त हो रही थी। बाद में हाईकोर्ट ने दोनों ही आदेशों को निरस्त कर दिया और कहा कि उसको 26.06.2012 तक पिछला वेतन प्राप्त करने का अधिकार है। मुख्य क्षेत्रीय प्रबंधक,

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यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सिराज उद्दीन खान नामक इस मामल में सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। नियोक्ता की दलील थी कि हाईकोर्ट ने 14.05.2009 के बाद से 20.06.2012 तक के वेतन के भुगतान का आदेश देकर ग़लती की है क्योंकि कर्मचारी उस अवधि के दौरान काम पर नहीं था और इसीलिए स्पष्ट रूप से वह 'काम नहीं तो वेतन नहीं' सिद्धांत के तहत इस अवधि के वेतन का अधिकारी नहीं है। इस दलील पर अदालत ने कहा, वर्तमान मामले में जिसकी चर्चा ऊपर की गई है, प्रतिवादी को नियोक्ता के किसी आदेश से काम से दूर नहीं रखा गया। उसकी सेवा बर्ख़ास्तगी का आदेश 20.06.2012 को तब जारी किया गया जब वह 20.06.2012 को वह रिटायर हो गया जिसका मतलब यह हुआ कि प्रतिवादी को किसी भी तरह से काम से नहीं रोका गया। अदालत ने यह भी ग़ौर किया कि जहाँ तक 14.05.2009 के बाद से 20.06.2012 तक वेतन के भुगतान का सवाल है, हाईकोर्ट ने इस बारे में कोई फ़ैसला नहीं दिया है। उसने कहा, "प्रतिवादी ने कोर्ट के समक्ष अपने बयान में कहा कि उसे ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से इलाहाबाद से जौनपुर तबादला किया गया। उसकी दिव्यांगता 40% से अधिक है और उसका किसी अन्य स्थान पर तबादला नहीं किया जा सकता। इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं है कि इलाहाबाद से जौनपुर उसके तबाले को मुक़दमे के किसी स्तर पर निरस्त किया गया हो या उसे वापस लिया गया हो"। हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए पीठ ने नियोक्ता को आदेश दिया कि वह 14.05.2009 के बाद से 20.06.2012 तक कर्मचारी के बक़ाया वेतन के भुगतान के दावे पर विचार करे और इस बारे में तीन महीने के भीतर उचित आदेश जारी करें।

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