उम्र कैद के दोषियों को समय से पहले रिहाई का दावा करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
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पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि उम्रकैद की सजा काट रहे किसी कैदी को समय से पहले रिहाई का दावा करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है, क्योंकि यह महज एक रियायत है, जो दोषी के जेल में आचरण, कैदी की गंभीरता और अपराध की प्रकृति आदि जैसे विभिन्न कारकों को देखने के बाद राज्य सरकार के विवेक पर दी जाती है। जस्टिस जसजीत सिंह बेदी की बेंच ने कहा, “ एक दोषी को समय से पहले रिहाई का दावा करने का कोई अंतर्निहित अधिकार नहीं है क्योंकि आजीवन कारावास का मतलब जेल में दोषी को पूरा जीवन गुज़ारना है, इसलिए ऐसे कैदी को छूट सहित किसी विशेष अवधि की समाप्ति पर बिना शर्त रिहा करने का कोई अपरिहार्य अधिकार नहीं है। हालांकि, यदि आवश्यक हो तो उपयुक्त सरकार को सजा के शेष हिस्से को माफ करने के लिए एक अलग आदेश पारित करना होगा। ” अदालत ने ये टिप्पणियां उम्रकैद की सजा काट रहे एक कैदी द्वारा समय से पहले रिहाई के मामले पर विचार को दो साल के लिए टालने के हरियाणा सरकार के फैसले के खिलाफ दायर रिट याचिका पर फैसला करते समय की गईं। याचिकाकर्ता 2006 में दोषी ठहराए जाने के बाद आईपीसी की धारा 460, 411 के तहत आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। याचिकाकर्ता ने 2002 में जारी पॉलिसी के संदर्भ में समय से पहले रिहाई पर विचार करने के लिए अपने सभी दस्तावेज जमा कर दिए थे। राज्य स्तरीय समिति ने पहले सिफारिश की थी कि उनके मामले को स्थगित कर दिया जाए और 20 साल की वास्तविक सजा के बाद इस पर फिर से विचार किया जाए। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को 40 दिनों की अवधि के भीतर एक नया प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करने का अवसर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने फिर से समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन किया लेकिन राज्य ने उसके मामले को 02 साल के लिए टाल दिया। याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता का मामला 2002 में जारी समयपूर्व रिहाई की नीति के तहत कवर किया गया था और याचिकाकर्ता ने 23.12.2022 तक कुल सजा के 20 साल की अपेक्षित अवधि पूरी कर ली थी, इसलिए वह समय से पहले रिहाई के लिए पूरी तरह पात्र है। राज्य के वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता के खिलाफ कई मामले दर्ज हैं। हिरासत में रहते हुए उसके कब्जे से प्रतिबंधित सामग्री बरामद की गई, जिसके लिए उसे जेल अधीक्षक द्वारा 15 दिनों की अलग कारावास की सजा सुनाई गई। राज्य ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ता एक आदतन अपराधी है और उसका मामला आजीवन कारावास के दोषी लक्ष्मण नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिर्देशों के तहत कवर नहीं किया गया था। पीठ ने दलीलों पर विचार करते हुए कहा कि राज्य स्तरीय समिति याचिकाकर्ता के आपराधिक इतिहास के कारण उसके आचरण पर और नजर रखना चाहती है इसलिए उसने याचिका खारिज कर दी।