Climate Change News: मानवीय गतिविधियों के कारण ही हो रहा जलवायु परिवर्तन, अध्ययन रिपोर्ट में खुलासा
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नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। पिछले कुछ सालों के दौरान मौसम में आए बदलाव और सभी प्राकृतिक आपदाओं को सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा गया है। हालांकि, ज्यादातर शोध बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन किसी प्राकृतिक नियति का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है। जलवायु परिवर्तन संबंधी 88,125 अध्ययनों के एक सर्वेक्षण में अब एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि 99.9 फीसद से अधिक अध्ययनों ने जलवायु परिवर्तन को मानव जनित माना है। यह सर्वेक्षण मूल रूप से कार्नेल विश्वविद्यालय ने किया है जबकि भारत में इसे पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन क्लाइमेट ट्रेंडस ने साझा किया है।
19 अक्टूबर को एनवायरनमेंट रिसर्च नामक जर्नल में यह शोध ‘ग्रेटर देन 99 पर्सेट कन्सेंसस आन ह्यूमन कौज्ड क्लाइमेट चेंज इन द पियर रिव्यूड साइंटिफिक लिटरेचर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। साल 2013 में, 1991 और 2012 के बीच प्रकाशित अध्ययनों पर हुए इसी तरह के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि 97 फीसद अध्ययनों ने इस विचार का समर्थन किया कि मानव गतिविधियां पृथ्वी की जलवायु को बदल रही हैं। वर्तमान सर्वेक्षण 2012 से नवंबर 2020 तक प्रकाशित सर्वेक्षण से पता चलता है कि यह आंकड़ा 97 फीसद से बढ़कर 99.9 फीसद हो गया है।
कार्नेल विश्वविद्यालय के एलायंस फार साइंस के विजिटिंग फेलो एवं इस सर्वेक्षण के प्रमुख लेखक मार्क लिनास का कहना है, अब कोई संदेह नहीं रहा कि 99 फीसद से अधिक शोध किस ओर इशारा कर रहे हैं। अब मानवजनित जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता के बारे में किसी भी चर्चा का कोई औचित्य नहीं बचा है। उनका यह भी कहना है कि जलवायु परिवर्तन में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की भूमिका को स्वीकार करना बेहद महत्वपूर्ण है। सच की स्वीकार्यता से ही समाधान की दिशा में नए विकल्प खोजे जा सकेंगे।
सिविल इंजीनियरिंग विभाग, आइआइटी कानपुर के प्रमुख प्रो. एस एन त्रिपाठी भी इस सच से इन्कार नहीं करते। कहते हैं, देश-दुनिया के कमोबेश सभी पर्यावरण विज्ञानी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि जलवायु परिवर्तन प्रकृत प्रदत्त नहीं है। उन्होंने कहा कि पेट्रोल, डीजल, कोयला और अन्य प्रतिबंधित ईंधनों का इतना ज्यादा इस्तेमाल हुआ है कि कार्बन डाइआक्साइड परत के रूप में वातावरण एवं आकाश की ओर जम गई है। वह अगले 50 साल तक भी खत्म नहीं होने वाली, इसीलिए उसका असर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के रूप में बढ़ता जा रहा है। पिछले दिनों आई आइपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज) की रिपोर्ट में भी इसकी तस्दीक की जा चुकी है।
प्रो. एसएन त्रिपाठी के मुताबिक स्थिति में सुधार के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना तो जरूरी है ही, वन क्षेत्र बढ़ाने सहित तमाम ऐसे उपाय भी करने होंगे जिनसे वातावरण में मौजूद हानिकारक गैसों को अवशोषित किया जा सके।
आरती खोंसला (क्लाइमेट ट्रेंडस की प्रमुख) का कहना है कि सर्वेक्षण में शोधकर्ताओं ने 2012 और 2020 के बीच प्रकाशित हुई 88,125 जलवायु पत्रों के डेटासेट से 3,000 अध्ययनों के रैंडम नमूने की जांच की। इनमें से केवल चार पत्रों में ही मानवीय गतिविधियों के कारण जलवायु परितर्वन की बात पर संशय था।