दिल्ली दंगा, 2020 : जस्टिस मदन लोकुर ने कहा, सच्चाई का पता लगाने के लिए स्वतंत्र जांच आयोग की जरूरत
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जस्टिस मदन लोकुर ने हाल ही में सुझाव दिया कि 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के लिए उत्तरदायी सभी कारकों की निष्पक्ष जांच के लिए एक जांच आयोग की स्थापना की आवश्यकता है। साथ ही दंगों से पहले, दंगों के बीच और दंगों के बाद में राज्य और उसके तंत्र की प्रतिक्रिया की पर्याप्तता का भी निर्धारण किया जाना चाहिए। जस्टिस लोकुर ने कहा, "पूरा देश यह जानने का हकदार है कि फरवरी 2020 में यहां क्या हुआ था।"जस्टिस लोकुर 25 फरवरी को राजधानी में फरवरी 2020 में भड़की सांप्रदायिक हिंसा की तीसरी बरसी पर संवैधानिक आचरण समूह और कारवां-ए-मोहब्बत की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रहे थे। जस्टिस लोकुर, उस नागरिक समिति के सदस्य हैं, जिसने 'अनिश्चित न्याय: उत्तर पूर्वी दिल्ली हिंसा 2020 पर एक नागरिक समिति रिपोर्ट' शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। उन्होंने कहा, “नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ उत्तर पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगों से पहले के दिनों में शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कई भड़काऊ भाषण दिए गए थे, जिसमें धमकी दी गई थी कि इलाके को बलपूर्वक साफ करा दिया जाएगा।यह संकेत देता है कि कुछ वर्गों ने विरोध प्रदर्शनों को खत्म करने का संकल्प लिया था, भले ही इसके लिए घातक बल और हिंसा का इस्तेमाल करना पड़े। एक केंद्रीय मंत्री भारतीय जनता पार्टी की रैली में भीड़ को उकसाने के लिए 'देश के गद्दारो को, गोली मारो सालों को' का नारा लगाने की सीमा तक चला गया। इस भड़काऊ बयानबाजी ने फरवरी 2020 के अंत में भड़की हिंसा का संकेत दे दिया था। मुझे जो चकित करता है, वह यह कि पुलिस कथित रूप से यह जान नहीं पाई कि एक गहरी सांप्रदायिक अशांति पनप रही थी। उन्होंने यह जानना चाहिए था कि सांप्रदायिक दंगे के लिए मंच तैयार किया जा रहा था, लेकिन उन्होंने इसके बारे में कुछ नहीं करने का फैसला किया था।जस्टिस लोकुर ने कहा कि गृह मंत्रालय ने हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में अतिरिक्त बलों की तैनाती में देरी की, यहां तक कि 23 और 26 फरवरी, 2020 के बीच दंगे बेरोकटोक जारी रहे। पूर्व जज ने कहा, दिल्ली पुलिस को दंगों के दिन कई अलर्ट मिले, इसके बावजूद अतिरिक्त बलों को अंतिम दिन ही तैनात किया गया था। उन्होंने गृह मंत्रालय की प्रतिक्रिया की आलोचना की। जस्टिस लोकुर ने कहा, दिल्ली सरकार हिंसा से प्रभावित लोगों को समय पर और पर्याप्त राहत और मुआवजा सुनिश्चित करने में भी विफल रही है।उन्होंने कहा, "मुआवजे का दावा करने के लिए पेश किया गया फॉर्म भी बहुत जटिल है - इतना जटिल है कि वकीलों को भी इसे भरने में कठिनाई होती है।" जस्टिस लोकुर ने आरोप लगाया कि सरकार और दावा आयोग की ओर से दंगों के पीड़ितों को देय मुआवजे को मंजूरी देने की प्रक्रिया में देरी हुई है, जबकि पीड़ितों को दंगों के तुरंत बाद पैसे की सबसे ज्यादा जरूरत थी। उन्होंने कहा कि अब तक केवल सात प्रतिशत आवेदनों पर विचार किया गया है और अन्य को अभी तक मुआवजा नहीं मिला है। उन्होंने बताया, “तीन साल हो गए हैं। यहां तक कि जिन मामलों में मुआवजा दिया गया है, वहां भी नुकसान की मात्रा के अनुरूप नहीं दिया गया है।” जस्टिस लोकुर ने कहा, "मौद्रिक मुआवजा ही सब कुछ नहीं है।" उन्होंने कहा, "जिन लोगों को शारीरिक चोटों या विकलांगता का सामना करना पड़ा है उन्हें चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है। लंबे समय तक चिकित्सकीय देखभाल महंगी है। सरकार को कुछ करना चाहिए - पीड़ितों के अस्पताल के बिलों का भुगतान करें, उन्हें आवश्यक दवाओं के लिए भुगतान करें। एकमुश्त भुगतान के संवितरण से सरकार की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती है। मौद्रिक मुआवजा सब कुछ नहीं है। दंगों में बच गए बहुत से लोग आघात और निरंतर भय के साथ जी रहे हैं। जिन बच्चों ने भयावहता देखी, वे आज कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। उन्हें काउंसलिंग की जरूरत है। उन्हें समाज में फिर से जोड़ने की जरूरत है। इसलिए, मुआवजे में न केवल मौद्रिक घटक होना चाहिए, बल्कि जीवित बचे लोगों की शारीरिक चोटों या विकलांगता और दंगों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पर भी विचार करना चाहिए।