21वीं सदी में भारत करेगा नेतृत्व, हमारी संस्कृति का होगा बोलबाला-सत्येन्द्र सिंह-Satendra Singh
21वीं सदी में भारत करेगा नेतृत्व, हमारी संस्कृति का होगा बोलबाला
खबर है कि आगामी अप्रैल महीने में महाकाल की नगरी उज्जैन में एक ऐसा अद्भुत कार्यक्रम होने जा रहा है, जिससे देश-दुनिया के लोग पृथ्वी के सर्वाधिक पुरातन-सनातन राष्ट्र ‘भारतवर्ष’ को ‘परम वैभव’ का अभीष्ट सिद्ध करने के निमित्त भारतीय पैरों पर पुनः खड़ा हो उठने का बौद्धिक उद्यम करते देख सकेंगे। भारत के पुनरुत्थान हेतु आयोजित होने वाले उस तीन दिवसीय बौद्धिक उद्यम की सुगबुगाहट सुनाई पडने लगी है, जो वास्तव में भारत की भवितव्यता के आकार लेने की आहट है। जी हां ! वही भवितव्यता, जिसे महर्षि अरविन्द व युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्य ने चेतना के सर्वोच्च स्तर पर जा कर अपनी-अपनी दिव्य-दृष्टि से काल के भावी प्रवाह का अवलोकन कर वर्षों पूर्व ही उद्घाटित कर रखा है कि २१वीं सदी का प्रथम दशक बीतने के साथ ही भारतीय ज्ञान-विज्ञान का नवोन्मेष आरम्भ हो जाएगा और फिर आने वाले दशकों में भारत अपनी समस्त सांस्कृतिक-आध्यात्मिक समग्रता के साथ सारी दुनिया पर छा जाएगा तथा सम्पूर्ण विश्व-वसुधा का नेतृत्व करेगा। तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान के उत्त्कर्ष-उन्नयन के जो मूल स्रोत पिछले दो सौ वर्षों से अंग्रेजों की षड्यंत्रकारी मैकाले शिक्षा-पद्धति की भीषण व्याप्ति और स्वातन्त्र्योत्तर भारत-सरकार की पश्चिमोन्मुख शिक्षा-नीति के कारण मृतप्राय हो कर तथाकथित आधुनिकता के गर्द-गुबार में ओझल हो चुके हैं, उन ‘स्रोतों’ के पुनर्जीवन एवं देश की चालू शिक्षा-पद्धति के भारतीयकरण हेतु एक अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन उज्जैन की धरती पर होने जा रहा है।
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भारत सरकार के केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संरक्षण में होने वाला वह आयोजन है- देश-दुनिया में अब तक बचे-खुचे अथवा नये खुले भारतीय गुरुकुलों का महा-सम्मेलन, जिसमें भारत की उस महान प्राचीन शिक्षा-पद्धति के आधुनिकीकरण, वैधानिकीकरण व वैश्वीकरण के बाबत शासनिक सूत्र-समीकरण तैयार किये जाएंगे, जो पद्धति अंग्रेजों द्वारा अवैध करार दिए जाने के कारण निस्तेज हो कर अप्रासांगिक हो चुकी थीं। इस हेतु उस कार्यक्रम में लगभग १२०० गुरुकुलों के संचालक, विद्यार्थी व उनके अभिभावक और गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति के चिन्तक-विचारक-विद्वत लोग भाग लेने वाले हैं। है न अद्भुत कार्यक्रम! अद्भूत ही नहीं, ऐतिहासिक भी है वह आयोजनय क्योंकि उससे भारत की नयी पीढ़ियों की दशा-दिशा तय करने के बाबत शिक्षा की उस भारतीय रीति-नीति-पद्धति को शासनिक आकार दिए जाने का प्रारुप निर्धारित होगा, जिसकी अपेक्षा १५ अगस्त १९४७ के बाद से ही देश के राष्ट्रवादी चिन्तकों व सांस्कृतिक संगठनों की ओर से की जाती रही है, किन्तु सरकार द्वारा इसकी उपेक्षा ही होती रही थी। मालूम हो कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रहने के पश्चात भारत की राष्ट्रीय चेतना को उभारने-झकझोरने की तपश्चर्या में प्रवृत हो ब्रह्म-सत्ता से साक्षात्कार कर लेने के कारण महर्षि कहे जाने वाले अरविन्द घोष और युग-ऋषि कहे गए श्रीराम शर्मा आचार्य ने विभिन्न अध्यात्मिक प्रयोगों से यह प्रतिपादित किया हुआ है कि अन्न, मन, प्राण, विज्ञान, आनन्द, चित् व सत् नामक सात कोषों से निर्मित मानव-शरीर का मस्तिष्क, चेतना के विभिन्न आयामों से, जो हमारी भौतिक दुनिया की सीमाओं से परे हैं, जुड़ सकता है। पश्चिम का विज्ञान तो आर्थिक लाभ के लिए सिर्फ भौतिक जगत के उपयोग पर अत्यधिक जोर देता रहा है।
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