हमला और सवाल-सत्येन्द्र सिंह-Satendra Singh
हमला और सवाल
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में बुधवार को नक्सलियों के हमले में पुलिस के पंद्रह जवानों की मौत चिंताजनक है। साफ है कि हालात काबू में नहीं हैं और नक्सली पूरी ताकत के साथ हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। वे आए दिन वाहनों को फूंक रहे हैं, सड़क बनाने में लगी मशीनों को आग के हवाले कर रहे हैं, लोगों को मार रहे हैं और सुरक्षा बलों पर हमले कर रहे हैं। क्या ये सब मामूली घटनाएं हैं? क्या सरकार के लिए यह गंभीर चुनौती नहीं है? सवाल है कि अगर सब कुछ नियंत्रण में है और सरकार नक्लसियों से निपटने में सफल रही है, जैसा कि हमेशा दावा किया जाता रहा है तो फिर ऐसी घटनाएं कैसे हो रही हैं? इससे तो लगता है सरकार का खुफिया तंत्र नाकाम है और उसे नक्सलियों के हमलों की भनक तक नहीं लगती। लेकिन बुधवार के इस दहला देने वाले हमले के बाद महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक ने खुफिया नाकामी की बात से साफ इनकार कर दिया। सवाल है कि अगर जरा भी खबर होती कि नक्सली आइईडी से हमला करने वाले हैं तो क्या जवानों को ले जा रहा वाहन वहां से गुजरने दिया जाता! सच यह है कि नक्सलियों ने यह हमला करके खुफिया तंत्र की पोल खोल दी है। गढ़चिरौली जिले में जहां यह हमला हुआ है वह जगह छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले की सीमा से सटा इलाका है। नक्सलियों ने हमले से कुछ घंटे पहले इस इलाके में एक सड़क निर्माण ठेकेदार की मशीनों और वाहनों को आग लगा दी थी। इसकी खबर मिलने के बाद महाराष्ट्र पुलिस के कमांडो दो बसों में सवार में होकर मौके पर जा रहे थे।
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तभी नक्सलियों ने बारूदी सुरंग को उड़ा डाला। नक्सली इन इलाकों में निर्माण कार्य नहीं होने दे रहे हैं। उन्हें इस बात का खौफ है कि सड़कों का नेटवर्क खड़ा हो जाने के बाद उनके खिलाफ सुरक्षाबलों के अभियान तेज हो जाएंगे। बुधवार को हमले के वक्त मौके पर करीब दो सौ नक्सली मौजूद थे। हालांकि पिछले साल अप्रैल में पुलिस ने चालीस नक्सलियों को मार गिराया था। तब सरकार ने दावा किया था कि नक्सली अब सिर नहीं उठा पाएंगे। लेकिन एक साल बाद फिर से नक्सलियों ने बड़ा हमला कर अपनी मौजूदगी और ताकत का संदेश देने की कोशिश की है। पिछले महीने दस तारीख को नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में एक भाजपा विधायक और चार पुलिस वालों की हत्या कर दी थी। दो साल पहले माओवादी हिंसा से प्रभावित दस राज्यों में एकीकृत कमान के गठन की पहल भी हुई थी और सभी राज्यों की साझा रणनीति बना कर आठ सूत्री समाधान भी तैयार किया गया था। लेकिन बुनियादी समस्या यह है कि नक्सलवाद से निपटने की योजनाएं जिस प्रभावी तरीके से लागू होनी चाहिए, लगता है वे हो नहीं रहीं। सत्ता तंत्र के इस रवैए से लगता है कि वह इस समस्या को गंभीरता से नहीं ले रहा है। ऐसे में सारी कवायद निष्फल साबित होती है। इसमें पैसा और समय तो जाता ही है, समस्या और गहराती जाती है। नक्सल समस्या दशकों पुरानी हो चुकी है। अगर इतने सालों में भी पिछड़े इलाकों में विकास नहीं हो पाया है और नक्सलियों का दबदबा बना हुआ है तो इसके लिए सीधे-सीधे राज्य और केंद्र सरकारें जिम्मेदार हैं। अगर नक्सलियों की समांतर सत्ता कायम है तो यह उनकी कामयाबी से कहीं ज्यादा हमारे शासन तंत्र की नाकामी का सबूत है। वरना ऐसे बड़े हमले बार-बार नहीं होते
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