बलात्कार पीड़िता की गवाही की पुष्टि पर जोर देना नारीत्व का अपमानः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोषी की याचिका खारिज की
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि एक महिला या एक लड़की जिसके साथ बलात्कार हुआ है, सह-अपराधी या सहयोगी नहीं है और उसकी गवाही की पुष्टि पर जोर देना नारीत्व का अपमान है। जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने आगे कहा कि एक बलात्कार पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर एक अभियुक्त को बिना किसी अन्य पुष्टि के दोषी ठहराया जा सकता है, बशर्ते कि ऐसी पीड़िता का सबूत आत्मविश्वास को प्रेरित करे और प्राकृतिक व सत्य प्रतीत हो। इसके साथ ही अदालत ने एक बलात्कार के अभियुक्त की तरफ से दायर उस अपील को खारिज कर दिया,जो उसने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, फतेहपुर द्वारा वर्ष 2010 में दिए गए फैसले व आदेश को चुनौती देते हुए दायर की थी। जिसमें उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 342 और 506 के तहत दोषी ठहराया गया था और 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। मामला संक्षेप में इस मामले में एफआईआर बलात्कार पीड़िता के भाई द्वारा दर्ज कराई गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसकी नाबालिग बहन (उम्र लगभग 15 वर्ष) 2 नवंबर, 2001 को सुबह लगभग 6ः30 बजे खेत में शौच करने गई थी और जब वह घर लौट रही थी तो आरोपी राजे उर्फ राजेश उर्फ संतोष कुमार शुक्ला व चुन्नी लाल शर्मा (2004 में मौत हो चुकी) ने उसको पकड़ लिया और पास के खेत में बने ट्यूबवेल के कमरे में ले जाकर उसके साथ दुष्कर्म किया। पीड़िता ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराए गए अपने बयान में सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज किए गए अपने बयान का समर्थन किया कि आरोपी व्यक्ति ने उसे जान से मारने की धमकी देकर उसके साथ बलात्कार किया था। जांच अधिकारी ने जांच पूरी करने के बाद अभियुक्तों के विरूद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया। पीडब्ल्यू-1 और पीडब्ल्यू-2, पीड़िता और शिकायतकर्ता के साक्ष्य के आधार पर निचली अदालत ने पाया था कि बलात्कार के आरोप साबित हुए हैं। निचली अदालत ने यह भी कहा था कि पीड़िता और उसके भाई के पास आरोपी व्यक्तियों को बलात्कार जैसे अपराध में झूठा फंसाने का कोई कारण नहीं था। इसलिए, इसने मामले में आरोपी/आवेदक राजे उर्फ राजेश उर्फ संतोष कुमार शुक्ला को दोषी ठहराया गया। दलीलें आक्षेपित निर्णय और आदेश से व्यथित होकर, आरोपी-अपीलार्थी ने सीआरपीसी की धारा 374 के तहत तत्काल आपराधिक अपील दायर की। उनका प्राथमिक तर्क यह था कि अभियोजन पक्ष के स्वतंत्र गवाह, जिनका नाम एफआईआर में था,उनको सुनवाई के दौरान पेश नहीं किया गया जिससे एफआईआर के तथ्यों की प्रामाणिकता के बारे में संदेह पैदा होता है। यह भी तर्क दिया गया था कि मामले में एफआईआर घटना के दो दिन बाद दर्ज की गई थी और एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं था। अंत में, यह भी प्रस्तुत किया गया कि पीड़िता के बयान की पीड़िता की मेडिको-लीगल जांच रिपोर्ट से पुष्टि नहीं हुई। दूसरी ओर, राज्य की ओर से पेश एजीए ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष के बयान को औपचारिक गवाहों के साक्ष्य से पुष्टि मिली और इसलिए, पीड़ित के बयान के खिलाफ कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए और उसे घायल गवाह के रूप में माना जाना चाहिए। न्यायालय की टिप्पणियां अदालत ने अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों की जांच की और उनके बयान में निरंतरता पाई जिससे यह निष्कर्ष निकला कि पीडब्ल्यू-1 और पीडब्ल्यू-2 द्वारा बताए गए घटनाओं के क्रम पर विश्वास न करने की कोई बात नहीं थी। न्यायालय ने यह भी पाया कि एफआईआर दर्ज करने में हुई देरी भी कुछ असाधारण नहीं थी क्योंकि कथित अपराध बलात्कार का था। स्वतंत्र गवाहों के पेश न होने के संबंध में, अदालत ने कहा कि उन्हें पेश नहीं किया गया क्योंकि वे सच बोलने को तैयार नहीं थे, हालांकि, पीडब्ल्यू-1 और पीडब्ल्यू-2 के बयान से यह तथ्य साबित हुआ कि पीड़िता को दोनों स्वतंत्र गवाहों द्वारा बचाया गया था। बलात्कार पीड़िता की एकमात्र गवाही पर भरोसा करने के संबंध में, हाईकोर्ट ने शीर्ष अदालत के कई फैसलों का उल्लेख किया जिसमें यह कहा गया था कि बलात्कार के मामले में, पीड़िता की गवाही एक घायल गवाह के समान है और वह यदि पीड़िता का साक्ष्य विश्वास को प्रेरित करता है और विश्वसनीय प्रतीत होता है तो पुष्टि के लिए आग्रह करना वास्तव में आवश्यक नहीं है। अदालत ने कहा, “जिस महिला या लड़की के साथ बलात्कार होता है वह सह-अपराधी नहीं है और गवाही की पुष्टि पर जोर देना नारीत्व का अपमान है। यौन अपराध की पीड़िता का साक्ष्य बहुत अधिक वजन का माना जाता है, पुष्टि के अभाव के बावजूद, इसलिए अपीलकर्ता के वकील के तर्कों में कोई बल नहीं है कि पीड़िता की एकमात्र गवाही किसी अन्य साक्ष्य से पुष्ट नहीं होती है।’’ अदालत ने बचाव पक्ष के वकील की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि चूंकि पीड़िता के निजी अंगों पर कोई चोट नहीं थी, इसलिए उसके बयान को खारिज किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने कहा, ‘‘... यहां तक कि जहां बलात्कार की पीड़िता के निजी अंगों पर चोट के कोई बाहरी या आंतरिक निशान मेडिकल जांच में नहीं पाए जाते हैं, वहां भी पीड़िता की यह गवाही कि आरोपी ने उसके साथ बलात्कार किया था, को खारिज नहीं किया जा सकता है।’’ नतीजतन, अदालत ने दोषी की अपील को खारिज करते हुए सजा के आदेश और फैसले को बरकरार रखा।