सुप्रीम कोर्ट ने मिज़ोरम में आरक्षण लाभ के लिए अनुसूचित जनजातियों के मिज़ो और गैर-मिज़ो के रूप में उप-वर्गीकरण को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया

Jul 19, 2023
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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मिजोरम में उच्च तकनीकी पाठ्यक्रमों में चयन में आरक्षण के नियमों को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया। राज्य द्वारा 2021 में जारी की गई अधिसूचना में मिजोरम की अनुसूचित जनजातियों को बहुसंख्यक ज़ो (मिज़ो) जनजाति में उप-वर्गीकृत किया गया, जिनके लिए 93% सीटें आरक्षित थीं, जबकि 1% सीटें गैर-मिज़ो लोगों के लिए थीं, जिनमें चकमा और मिजोरम में स्थायी रूप से रहने वाले समुदाय शामिल थे। उन पर मिजोरम से ग्यारहवीं, बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने की अतिरिक्त आवश्यकता लगाई गई थी। याचिकाकर्ताओं ने अधिसूचना को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16(4) और 21 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी। याचिकाकर्ता मिजोरम चकमा स्टूडेंट्स यूनियन ने प्रस्तुत किया कि राज्य के फैसले से सभी चकमा छात्रों और अन्य गैर-ज़ो अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को उच्च और तकनीकी शिक्षा तक पहुंच से वंचित कर दिया जाएगा और एक तरफ बहुसंख्यक मिज़ो आदिवासियों और दूसरी तरफ अल्पसंख्यक गैर-ज़ो जनजातियों के बीच शैक्षिक अंतर बढ़ जाएगा। गुवाहाटी ‌हाईकोर्ट द्वारा यूनियर की ओर से दायर जनहित याचिका को खारिज करने के बाद, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड विक्रम हेगड़े की सहायता से सीनियर एडवोकेट आदित्य सोंधी ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ के समक्ष याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व किया। सोंधी ने बताया कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला - जिसने घोषित किया कि एससी/एसटी का उप-वर्गीकरण अस्वीकार्य था - अभी भी एक मिसाल के रूप में महत्व रखता है इस तथ्य के बावजूद कि पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020) में, एक अन्य संविधान पीठ ने मामले को 7-न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। हालांकि, हाईकोर्ट ने जनहित याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि पक्ष दविंदर सिंह के फैसले से बंधे होंगे। पीठ ने मामले पर 24 जुलाई, 2023 को रिटर्न करने योग्य नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि ईवी चिन्नैया मामले में एसटी के उप-वर्गीकरण को असंवैधानिक माना गया है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अधिसूचना प्रथम दृष्टया गैरकानूनी थी क्योंकि अनुसूचित जनजातियों के उप-वर्गीकरण को चिन्नैया में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ द्वारा असंवैधानिक माना गया है। याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि आरक्षण सामाजिक न्याय प्राप्त करने के उद्देश्य को पूरा करने में विफल है क्योंकि उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए 93% सीटें विशेष रूप से ज़ो जातीय जनजाति या बहुसंख्यक मिज़ोस के लिए आरक्षित की गई हैं। दूसरी ओर, मिजोरम राज्य के (गैर-ज़ो) निवासियों के लिए केवल 1% सीटें नामित की गई हैं जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विवादित अधिसूचना असंवैधानिक है क्योंकि यह भेदभावपूर्ण है और संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत प्रदत्त सभी व्यक्तियों के समानता के अधिकार का उल्लंघन करती है। वे राज्य के गैर-मिज़ो अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं। उन्होंने आगे तर्क दिया कि अतिरिक्त आवश्यकताएं मिजोरम की अनुसूचित जनजातियों के एक समूह के लिए लगाई गई थीं, दूसरों के लिए नहीं। इसी तरह की एक अधिसूचना 2019 में गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा पहले ही रद्द कर दी गई थी याचिकाकर्ताओं ने 2019 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि "मिजोरम राज्य के गैर-ज़ो-जातीय लोगों के बच्चों को श्रेणी- II में रखने वाले नियम को कायम नहीं रखा जा सकता है। आगे यह देखा गया है कि उन्हें मिजोरम राज्य के ज़ो-जातीय लोगों के साथ रखा जाना चाहिए। तदनुसार, नियम 5 में उल्लिखित उम्मीदवारों की श्रेणियों के लिए आरक्षित सीटों के प्रतिशत को फिर से तय करने के लिए मिजोरम राज्य को स्वतंत्रता दी गई है।