बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा करनेवाले मनोसामाजिक विकृतियों के शिकार होते हैं, उन्हें अदालत से नरमी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए दिल्ली हाईकोर्ट निर्णय पढ़े

Jun 14, 2019

बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा करनेवाले मनोसामाजिक विकृतियों के शिकार होते हैं, उन्हें अदालत से नरमी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए दिल्ली हाईकोर्ट निर्णय पढ़े

निर्दोष बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा करने वाले लोग मनोसामाजिक विकृतियों के शिकार होते हैं और उन्हें कोर्ट से नरमी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। लोकेश बनाम राज्य मामले की सुनवाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह बात कही। यौन अपराधों की घृणित प्रकृति के बारे में अपनी राय रखते हुए न्यायमूर्ति सी हरि शंकर ने कहा कि यह प्रकृति का स्वाभाव है और सभी जीवित प्राणी का यह पवित्र अधिकार है कि वह बचपन से किशोरावस्था में जाए और अंततः युवा बने। यौन अपराधी प्रकृति के इस नियम में अपने हिंसक कारनामों से व्यवधान पैदा करते हैं। अदालत एएसजे के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील की सुनवाई कर रही थी। एएसज़र ने एक व्यक्ति को पोकसो अधिनियम 2012 की धारा 6 और आईपीसी की धारा 376 के तहत एक व्यक्ति को 10 साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई थी और उसको ₹7500 का जुर्माना भी भरने को कहा था। अदालत ने एएसजे के फ़ैसले में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से मना कर दिया पर उसने आरोपी की सज़ा बढ़ाने से भी मना कर दिया। हालाँकि कोर्ट ने कहा कि एएसजे ने आरोपी को सज़ा देने में नरमी बरती है क्योंकि लड़की जीवन भर इस हिंसा से मिली पीड़ा से उबर नहीं पाएगी। पर अदालत ने कहा कि राज्य ने उसकी सज़ा को बढ़ाए जाने की अपील नहीं की है इसलिए वह सज़ा के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।

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अपीलकर्ता ने 4 साल की एक बच्ची को अपने साथ साइकिल पर जंगल ले जाकर उसके साथ बलात्कार किया था। अदालत ने कहा कि अगर कोई गवाह बच्चा है तो उसकी गवाही का सावधानीपूर्वक मूल्याँकन अवश्य ही किया जाना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि उसको क्या बोलना है इस बारे में बता दिया गया होगा। अगर इस बात का प्रमाण है कि बच्चे को बता दिया गया था कि क्या बोलना है, अदालत उसके बयान को ख़ारिज कर सकती है। पर बच्चे को इस बारे में सिखाया गया था कि नहीं कि क्या बोलना है, इसकी जानकारी उसके बयानों से मिल सकती है। अदालत ने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के कई सारे फ़ैसलों का ज़िक्र किया। इनमें से कुछ इस तरह से हैं : योगेश सिंह बनाम महाबीर सिंह (2017) 11 SCC 195 का मामला : इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह तयशुदा बात है कि अगर कोई बच्चा गवाही दे रहा है तो उसकी गवाही पर भरोसा करने से पहले इसकी पुष्टि की जानी चाहिए और पुष्टि के बारे में नियम यह है कि यह व्यावहारिक प्रज्ञा है न कि क़ानून। सतीश बनाम हरियाणा राज्य (2018) 11 SCC 300 : "किसी बाल-गवाह की गवाही की स्वीकार्यता का आकलन करते हुए निचली अदालत की संवेदनशीलताङ्घको पर्याप्त आदर दिया जाना ज़रूरी है क्योंकि इस तरह का कोई निर्णय निचली अदालत की समझ कि ख़िलाफ़ होगा". बाल-गवाहों के बयानों की विश्वसनीयता के बारे में अदालत ने कुछ दिशानिर्देशात्मक सिद्धांत की बात कही जो इस तरह से हैं : इस बारे में कोई सिद्धांत नहीं है जिसके अनुसार यह कहा जाए कि बाल-गवाहों के बयान पर विश्वास नहीं किया जा सकता या किया जा सकता है। अगर कोई बाल-गवाह गवाही देने में सक्षम है और विश्वसनीय है तो उसकी गवाही पर विश्वास किया जा सकता है और यह आरोपी को दोषी ठहराए जाने का आधार बन सकता है। अदालत को यह सुनिश्चित करना है कि (a) गवाह पूछे जाने वाले प्रश्न को समझ रहा है कि नहीं;

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(b) गवाह का आचरण दूसरे इसी तरह के गवाहों के आचरण की तरह है कि नहीं; (c) गवाह के पास पर्याप्त बुद्धि और समझ है कि वह गवाही दे; (d) गवाह को जवाब रटाया नहीं गया है; (e) गवाह यह समझता है कि सही क्या है और ग़लत क्या;(f) गवाह इस बात को समझता है कि वह जो बता रहा है उसका परिणाम क्या होगा। जजों और मजिस्ट्रेटों से यह अपेक्षित है कि वे उनकी सकारात्मक राय को हमेशा रिकॉर्ड करना चाहिए कि बाल-गवाह सच बोलने को अपना कर्तव्य समझता है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर गवाह की विश्वसनीयता गंभीर रूप से प्रभावित होगी। बयान का अन्य स्रोतों से सत्यापन हमेशा ही बुद्धिमानी का काम है ख़ासकर तब जब उसके बयान के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया जाना है। अपीलकर्ता की पैरवी आदित्य विक्रम ने किया जबकि सरकार की पैरवी जीएम फ़ारूक़ी ने की |

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