हो सकता है कि हर आपराधिक मामले में सज़ा देना ज़रूरी नहीं हो इलाहाबाद हाईकोर्ट

Oct 09, 2019

हो सकता है कि हर आपराधिक मामले में सज़ा देना ज़रूरी नहीं हो इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने को समाधेय अपराध में सुलह की अनुमति दी और कहा कि ज़रूरी नहीं कि हर आपराधिक मामले में सज़ा दी ही जाए। अदालत ने कहा कि अगर संबंधित पक्षों ने सुलह करने का मन बना लिया है तो उस स्थिति में आपराधिक प्रक्रिया का जारी रहना उत्पीड़न और दुर्भावना की स्थिति पैदा होगी। अदालत ने कहा, "आपराधिक क़ानून का उद्देश्य अपराधी को उसके किए की सज़ा दिलाना है। उसे सज़ा दी जा सकती है या उसे पीड़ित को मुआवज़ा देने को कहा जा सकता है, लेकिन क़ानून, इसके साथ ही, यह भी कहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि हर आपराधिक मामले में सज़ा दी ही जाए, अगर संबंधित पक्ष अपना वैर भुला देना चाहते हैं"। यह निर्णय न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने शिकायतकर्ताओं के सुलह के आवेदन पर दिया। इन पर आरोप था कि उन्होंने अपनी पत्नियों को यातना दी है और उनको उत्पीड़ित किया है। इन लोगों पर आईपीसी की धारा 498-A, 323, 504, 506 और 316 और दहेज क़ानून की धारा 3 और 4 के तहत मुक़दमा चलाया आया था। अदालत ने सुलह के इनके आवेदन को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि इन धाराओं के तहत यह अपराध समाधेय है। वक़ील मनोज तिवारी और अशोक कुमार सिंह ने आवेदनकर्ताओं की पैरवी की और कहा कि पतियों और पत्नियों के बीच वैवाहिक विवाद के सुलझ जाने और ख़ासकर अब जब वे साथ रह रहे हैं और अपना जीवन ख़ुशी-ख़ुशी बिता रहे हैं तो निचली अदालत को सुलह का उनका आवेदन स्वीकार कर लेना चाहिए। शिकायतकर्ता पत्नियों ने भी आवेदन देकर कहा था कि उन्होंने अपना विवाद सुलझा लिया है और आवेदनकर्ताओं के ख़िलाफ़ चल रहे कार्यवाही को समाप्त किया जा सकता है। उनकी इस अपील से सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति सिंह ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने उपयुक्त वैवाहिक मामलों में आपराधिक प्रक्रियाओं को निरस्त करने के हाईकोर्ट के अधिकार को अनुमति दी है। इस बारे में उन्होंने बीएस जोशी एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2003) एवं मध्य प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी नारायण एवं अन्य AIR 2019, SC 1296 मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ज़िक्र किया। सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में इस बात को स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट को धारा 320 के तहत क्षम्य अपराधों के संदर्भ में आपराधिक प्रक्रियाओं को समाप्त करने का जो अधिकार सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दिए गए हैं उनका प्रयोग विशेष रूप से ऐसे मामले में किया जा सकता है जो दीवानी प्रकृति के हैं और जिसमें पक्षकारों ने आपस में अपने मामले सुलझा लिए हैं और ये मामले विशेषकर वाणिज्यिक लेनदेन, वैवाहिक संबंधों और पारिवारिक झगड़ों से जुड़े हैं। उपरोक्त को देखते हुए अदालत ने कहा, "ऐसे मामले में भी जो समाधेय अपराधों से जुड़े हैं, सुप्रीम कोर्ट ने उनको निरस्त करने के अधिकार की अनुमति दी है अगर उस अपराध की प्रकृति ऐसी है जिसका कोई गंभीर सामाजिक परिणाम नहीं होगा और जिसमें विवाद कमोबेश पक्षकारों तक ही सीमित है"। उन्होंने पक्षकारों द्वारा अपने विवाद सुलझा लेने पर साक्ष्य जुटाने में होने वाली दिक्कत के संदर्भ में भी टिप्पणी की। "जब किसी मामले में शिकायतकर्ता या अपराध से पीड़ित पक्ष आरोपी के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का सबूत नहीं देने का निर्णय करते हैं क्योंकि दोनों पक्षों के बीच सुलह हो गई है ङ्घऔर इस स्थिति में अगर उन्हें अदालत में बुलाया जाता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि वे अपनी बातों से मुकर जाएँ ङ्घपर इस मामले में सत्य क्या है इस बात की जानकारी इन्हें ही है। इस तरह की स्थिति में इस बात की पूरी संभावना है कि वे अपने शब्दों को वापस ले लें.अदालती कार्यवाही ऐसी स्थिति में असंगत बनकर रह जाएगी। इस तरह की परिस्थिति में मामले को उसकी स्वाभाविक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता और इस तरह की परिस्थिति में दंडित करने की प्रत्याशा क्षीण हो जाती है," उन्होंने कहा।

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