भगोड़े अपराधी को केवल असाधारण और दुर्लभ मामलों में अग्रिम जमानत दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भगोड़े अपराधी को अग्रिम जमानत केवल असाधारण और दुर्लभ मामले में ही दी जा सकती है। अदालत ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा प्रतिवादी को जमानत देने का आदेश रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। उक्त प्रतिवादी को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 82 के तहत भगोड़ा अपराधी (Proclaimed Offender) घोषित किया गया है। “प्रतिवादी खुद को भगोड़ा अपराधी घोषित करने वाले आदेश का सफलतापूर्वक उल्लंघन किए बिना अग्रिम जमानत की मांग नहीं कर सकता। तथ्यात्मक रूप से देखने पर स्पष्ट हैं कि सीआरपीसी की धारा 438 के तहत प्रतिवादी के आवेदन पर विचार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि वह घोषित अपराधी है।” उक्त टिप्पणियों का समर्थन करने के लिए न्यायालय ने लवेश बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली), (2012) 8 एससीसी 730 और मध्य प्रदेश बनाम प्रदीप शर्मा, (2014) 2 एससीसी 171 में पारित निर्णयों पर भरोसा किया, जिनमें सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट किया है कि किसी भगोड़े अपराधी को अग्रिम जमानत नहीं दी जानी चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी ध्यान में रखा कि असाधारण और दुर्लभ मामले में आवेदक के भगोड़ा अपराधी होने के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट अग्रिम जमानत की मांग करने वाली याचिका पर विचार कर सकते हैं। उक्त विचार यह देखते हुए किया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट संवैधानिक न्यायालय हैं। हालांकि, उक्त मामले में ऐसी कोई असाधारण स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। इन तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर न्यायालय ने अपील की अनुमति दी और प्रतिवादी को चार सप्ताह के भीतर संबंधित न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया। “हम जानते हैं कि किसी की स्वतंत्रता में आसानी से हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। इससे भी अधिक जब हाईकोर्ट द्वारा अग्रिम जमानत का आदेश पहले ही दिया जा चुका हो। फिर भी जमानत की तरह अग्रिम जमानत देने का प्रयोग न्यायिक विवेक के साथ किया जाना चाहिए।" उक्त अपील हरियाणा राज्य द्वारा पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश की आलोचना करते हुए दायर की गई। इस आदेश में अदालत ने प्रतिवादी को अग्रिम जमानत दे दी थी। वर्तमान मामले में प्रतिवादी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की कई धाराओं के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की गई। एफआईआर आईपीसी की धारा 147, 148 और धारा 364 के तहत दर्ज की गई। अपीलकर्ता की ओर से पेश वकील ने कहा कि आरोपों की प्रकृति और एकत्र की गई सामग्री के साथ-साथ प्रतिवादी को भोगड़ा अपराधी घोषित किए जाने की पृष्ठभूमि में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत छूट दी गई है, जो ग़लत है। आगे यह प्रस्तुत किया गया कि अपीलकर्ता की संलिप्तता दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं। इसके अलावा, इसी आदेश के आधार पर अन्य सह-अभियुक्त व्यक्तियों को अग्रिम जमानत का लाभ दिया गया, जो व्यापक सार्वजनिक हित की पूर्ति नहीं करता। दूसरी ओर, प्रतिवादी की ओर से पेश वकील ने दिए गए आदेश का समर्थन किया। उन्होंने तर्क दिया कि जांच एजेंसी ने प्रतिवादी को अनावश्यक रूप से परेशान करने और फंसाने की कोशिश की। अग्रिम जमानत की रूपरेखा सुप्रीम कोर्ट ने शुरुआत में कई फैसलों का हवाला दिया, जिसमें जमानत के लिए आवेदन पर विचार करते समय ध्यान में रखे जाने वाले कारकों को स्पष्ट किया गया है। इनमें प्रशांत कुमार सरकार बनाम आशीष चटर्जी, (2010) 14 एससीसी 496, महिपाल बनाम राजेश कुमार उर्फ पोलिया, एक्स बनाम तेलंगाना राज्य, (2018) 16 एससीसी 511, एक्सएक्सएक्स बनाम अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का क्षेत्र, 2023 आईएनएससी 767 से संबंधित मामलों में सुनाए गए फैसले शामिल हैं। उल्लेख किए गए महिपाल के मामले में न्यायालय ने कहा: “जो विचार जमानत देने वाले आदेश की शुद्धता का आंकलन करने में अपीलीय अदालत की शक्ति का मार्गदर्शन करते हैं, वे विचार जमानत रद्द करने के आवेदन के मूल्यांकन से अलग स्तर पर खड़े होते हैं। जमानत देने वाले आदेश की सत्यता का परीक्षण इस आधार पर किया जाता है कि क्या जमानत देने में विवेक का अनुचित या मनमाना प्रयोग किया गया। परीक्षण यह है कि जमानत देने का आदेश विकृत, अवैध या अनुचित है या नहीं। दूसरी ओर, जमानत रद्द करने के लिए आवेदन की जांच आम तौर पर उस व्यक्ति द्वारा जमानत की शर्तों के उल्लंघन या पर्यवेक्षण परिस्थितियों के अस्तित्व के आधार पर की जाती है, जिसे जमानत दी गई है। ..." आगे बढ़ते हुए न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि विपन कुमार धीर बनाम पंजाब राज्य, (2021) 15 एससीसी 518, दौलत राम बनाम हरियाणा राज्य, (1995) 1 एससीसी 349 और एक्स बनाम तेलंगाना राज्य पर भरोसा किया, जिनमें आरोपी को दी गई अग्रिम जमानत रद्द कर दी गई थी। विवादित आदेश के संबंध में न्यायालय के निष्कर्ष वर्तमान मामले के तथ्यों को संबोधित करते हुए न्यायालय ने आक्षेपित आदेश पर अपना असंतोष व्यक्त किया। न्यायालय ने राय दी कि हाईकोर्ट के लिए प्रतिवादी को अग्रिम जमानत देना सही नहीं है। यह नोट किया गया कि हाईकोर्ट ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य, (2014) 8 एससीसी 273 पर भरोसा किया, जहां अपराध सात साल से कम की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है, या जिसे सात वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है। इस कारावास के लिए जुर्माने के साथ या उनके बिना ऑटोमैटिकली गिरफ्तारी नहीं होगी। हालांकि, अर्नेश कुमार के निर्णय से सहमत होते हुए न्यायालय ने कहा: “हालांकि, आईपीसी की धारा 364 में आजीवन कारावास या दस साल के कठोर कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। हम इस बात से हैरान हैं कि आईपीसी की धारा 364 जोड़ने के बावजूद, हाईकोर्ट ने कैसे यह विचार किया कि अर्नेश कुमार (सुप्रा) मामले में यह कहा गया कि अग्रिम जमानत के लिए प्रतिवादी की सहायता करेंगे। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि प्रतिवादी भगोड़ा अपराधी है। कोर्ट ने कहा, “जैसी स्थिति है, प्रतिवादी को 05.02.2021 को भगोड़ा अपराधी घोषित किया गया। अक्टूबर, 2021 में ही हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत मांगी थी। ऐसे में हाईकोर्ट के लिए केवल कथनों के आधार पर तथ्य को खारिज करना सही नहीं है।"