क्या सेक्स वर्कर्स के क्लाइंट्स पर आईपीसी की धारा 370 या 370ए के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है? आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच फैसला करेगी

Apr 27, 2023
Source: https://hindi.livelaw.in/

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने कानूनी सवाल पर खंडपीठ के फैसले के लिए संदर्भ दिया कि क्या यौनकर्मियों के क्लाइंट पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 370 और 370ए के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। अदालत ने कहा, "रजिस्ट्री को निर्देश दिया जाता है कि वह मामले को माननीय चीफ जस्टिस के समक्ष उपयुक्त पीठ के गठन के लिए रखे, जिससे यह तय किया जा सके कि 'क्या, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 की धारा 3 से 7 के तहत अपराधों के लिए दर्ज मामले में क्लाइंट पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 370 या 370A के तहत अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है?' हालांकि जस्टिस के. श्रीनिवास रेड्डी ने अपने फैसले में कहा कि 'क्लाइंट' आईपीसी की धारा 370ए के दायरे में आएगा। उन्होंने कहा कि कानून के समान प्रश्न पर समन्वयित पीठों द्वारा परस्पर विरोधी निर्णय दिए गए हैं। अदालत ने कहा, "इस न्यायालय के एकल न्यायाधीशों द्वारा पारित परस्पर विरोधी आदेशों के मद्देनजर, इस मुद्दे को शांत करने और इसकी आधिकारिक घोषणा के लिए खंडपीठ को संदर्भित करना वांछनीय है और अंतिम रूप प्राप्त करने के लिए कि क्या क्लाइंट आईपीसी की धारा 370 और धारा 370A के दायरे में आएगा।" "जब जस्टिस जेएस वर्मा समिति (आईपीसी की धारा 370ए) का उद्देश्य इस तरह की नापाक गतिविधियों को रोकना है तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि क्लाइंट को उक्त व्यापार में निर्दोष पीड़ित क्यों माना जा सकता है।" अदालत यौनकर्मियों के मुवक्किलों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग वाली याचिकाओं के समूह पर सुनवाई कर रही थी। तस्करी की गई महिलाओं के यौन शोषण के अपराध के लिए आईपीसी की धारा 370ए (2) और अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 (अधिनियम, 1956) की धारा 3, 4, 5 और 7 के तहत मामले दर्ज किए गए। याचिकाएं इस आधार पर दायर की गईं कि यौनकर्मी या क्लाइंट के मुवक्किल अधिनियम, 1956 की धारा 3, 4 और 5 और 370 और आईपीसी की धारा 370ए के तहत अपराधों के दायरे में नहीं आएंगे। इसलिए अपराधों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। हालांकि, अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि प्रथम दृष्टया क्लाइंट के खिलाफ आईपीसी की धारा 370ए के तहत अपराध का मामला बनता है, क्योंकि वे छापे के समय अधिकारियों द्वारा रंगे हाथों पकड़े गए। चाहे मामला प्रयास का हो या अपराध या तैयारी का, जांच या मुकदमे का विषय होगा। इस स्तर पर सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका में न्यायालय संचालन करने की स्थिति में नहीं होगा। वकील ने कहा कि इन विवरणों में जाने के लिए जांच चल रही है। दूसरी ओर, याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि यौनकर्मियों के मुवक्किलों को अधिनियम, 1956 की धारा 3 और 5 के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि पीड़ितों के घर जाने वाले क्लाइंट द्वारा किए गए अपराधों के संबंध में कानून मौन है। अदालत ने कहा कि क्लाइंट एक्ट की धारा 3 और धारा 4 के आह्वान के संबंध में सवाल "अब इस कारण से अभिन्न नहीं है कि इस न्यायालय ने 2011 की आपराधिक याचिका नंबर 408 में अपने आदेश दिनांक 12.06.2013 में इस हद तक आदेश पारित किया कि क्लाइंट एक्ट, 1956 की धारा 3 और 4 के दायरे में नहीं आएगा। तदनुसार, एक्ट, 1956 की धारा 3 और 4 के तहत अपराधों के संबंध में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्यवाही चलने योग्य नहीं है।" हालांकि, अदालत ने कहा कि पुलिस क्लाइंट के खिलाफ आईपीसी की धारा 370 के साथ क्लाइंट एक्ट, 1956 की धारा 3, 4 और 5 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए मामले दर्ज कर रही है। अदालत ने आईपीसी की धारा 370 का जिक्र करते हुए कहा, "उपरोक्त प्रावधान का पढ़ने से पता चलता है कि प्रावधान का मुख्य उद्देश्य किसी लड़की या महिला के शोषण की रोकथाम है। यह बहुत स्पष्ट करता है कि जो भी शोषण के उद्देश्य से भर्ती, परिवहन, बंदरगाह, स्थानांतरण या किसी व्यक्ति को धमकी देकर, या बल प्रयोग करके या किसी अन्य प्रकार के दबाव से, या अपहरण द्वारा, या धोखाधड़ी या धोखे से, या शक्ति के दुरुपयोग द्वारा तस्करी का अपराध करता है। लड़की या महिला के यौन शोषण को रोकने के घोषित उद्देश्य के लिए उक्त धारा को विधानमंडल द्वारा अधिनियमित किया गया है।" इसमें कहा गया कि प्रावधान यह स्पष्ट करता है कि जो कोई भी यौन शोषण के उद्देश्य से किसी लड़की या महिला की भर्ती, परिवहन, बंदरगाह, स्थानांतरण या प्राप्त करता है, ऐसा व्यक्ति आईपीसी की धारा 370 के तहत अपराध का दोषी है। अदालत ने कहा, "प्रावधान यह भी स्पष्ट करता है कि पीड़ित की सहमति यातायात के अपराध के निर्धारण में महत्वपूर्ण नहीं है। अभिव्यक्ति 'शोषण' में शारीरिक शोषण का कोई भी कार्य या किसी भी प्रकार का यौन शोषण, गुलामी या दासता, या अंगों को जबरन हटाना के समान प्रथाएं शामिल हैं।” अदालत ने विनोद @ विजय भागुभाई पटेल बनाम गुजरात राज्य में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि, "यह विचार करना बेहद मुश्किल है कि वेश्यालय में क्लाइंट आईपीसी की धारा 370 के तहत निर्धारित प्रावधान के अंतर्गत नहीं आता। वेश्यालय में क्लाइंट को पीड़ित को प्राप्त करने के लिए कहा जा सकता है। मुझे कोई अच्छा कारण नजर नहीं आता कि क्यों क्लाइंट को दंड संहिता, 1860 की धारा 370 से बाहर रखा जाना चाहिए। फैसले में गुजरात हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 370 के आशय पर जस्टिस वर्मा आयोग द्वारा जारी स्पष्टीकरण का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया कि आईपीसी की धारा 370 में संशोधन की सिफारिश करने के पीछे उनकी मंशा महिलाओं और बच्चों को तस्करी से बचाने की थी। समिति का इरादा संशोधित आईपीसी की धारा 370 यौनकर्मियों के दायरे में लाने का नहीं है, जो अपनी मर्जी से काम करते हैं। यह भी स्पष्ट किया गया कि आईपीसी की धारा 370 की पुनर्रचना की व्याख्या कानून-प्रवर्तन एजेंसियों को उन यौनकर्मियों को परेशान करने की अनुमति देने के लिए नहीं की जानी चाहिए जो अपनी मर्जी से गतिविधियां करते हैं। उपरोक्त पर विचार करते हुए अदालत ने देखा कि यदि कोई यौनकर्मी बिना किसी प्रलोभन, बल या जबरदस्ती के अपनी मर्जी से वेश्यावृत्ति में संलग्न होती है तो यह स्पष्ट नहीं है कि क्लाइंट आईपीसी की धारा 370 के दायरे में आएगा या नहीं। अदालत ने कहा, "इस अदालत का विचार है कि यह अभी भी तथ्य का सवाल होगा कि क्या महिला उक्त पेशे को अपनी मर्जी से चला रही है या नहीं। सामान्य तौर पर देश की परंपराओं के अनुसार, कोई भी महिला इसमें शामिल नहीं होगी, जब तक उसे उक्त पेशे में आने के लिए मजबूर नहीं किया जाता। यहां, इस न्यायालय का विचार है कि यह स्वतंत्र इच्छा से बाहर है या नहीं, यह तथ्य का प्रश्न बना रहेगा और इसका निर्णय इस मामले के ट्रायल के दौरान किया जाना है।” हालांकि, जस्टिस रेड्डी ने यह भी कहा कि अदालत को लगता है कि आईपीसी की धारा 370 ए की उप-धारा (2) में कोई अस्पष्टता नहीं है। एस नवीन कुमार @ नवीन बनाम तेलंगाना राज्य के मामले का उल्लेख करते हुए अदालत ने कहा, "पूर्वोक्त निर्णय में इस न्यायालय ने यह विचार किया कि 'क्लाइंट' आईपीसी की धारा 370ए के दायरे में आएगा, क्योंकि स्वर्गीय जस्टिस जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता वाली समिति का उद्देश्य हितधारकों के क्रॉस सेक्शन के साथ बातचीत करना है और उसके बाद उनकी बात सुनकर उक्त नापाक गतिविधियों को रोकने के उद्देश्य से दंड कानूनों में कई संशोधन और विभिन्न प्रावधानों को पेश करने का सुझाव दिया। जब समिति का उद्देश्य इस तरह की नापाक गतिविधियों को रोकना है तो कोई कारण नहीं है कि क्लाइंट को क्यों देह व्यापार में निर्दोष शिकार माना जाता है।"