धारा 190 (1) (बी) सीआरपीसी | मजिस्ट्रेट धारा 164 सीआरपीसी के बयान के आधार पर भी व्यक्ति को सम्मन कर सकता है, यदि उसकी प्रथम दृष्टया संलिप्तता पाई जाती है: इलाहाबाद हाईकोर्ट
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि सीआरपीसी की धारा 190 (1) (बी) के संदर्भ में एक पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अपराध का संज्ञान लेने वाला एक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को धारा 164 सीआरपीसी के तहत दिए बयान के आधार पर भी सम्मन जारी कर सकता है, भले ही ऐसे व्यक्ति को पुलिस रिपोर्ट या एफआईआर में आरोपी के रूप में आरोपित नहीं किया गया हो। जस्टिस मंजू रानी चौहान की खंडपीठ ने हालांकि स्पष्ट किया कि किसी अपराध का संज्ञान लेने पर व्यक्तियों को बुलाने से पहले, मजिस्ट्रेट को उनके पास उपलब्ध सामग्रियों की जांच करनी होती है ताकि प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि पुलिस द्वारा भेजे गए के अलावा, कुछ अन्य व्यक्ति अपराध में शामिल हैं। "इन सामग्रियों को पुलिस रिपोर्ट, आरोप पत्र या एफआईआर तक ही सीमित रहने की आवश्यकता नहीं है। संहिता की धारा 164 के तहत दिए गए बयान पर भी इस तरह के उद्देश्य के लिए विचार किया जा सकता है…,” इस संबंध में, न्यायालय ने नाहर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2022 लाइवलॉ (एससी) 291 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें यह फैसला दिया गया था कि यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष ऐसी सामग्री है जो अभियुक्तों के अलावा अन्य व्यक्तियों की मिलीभगत को दर्शाती है, जिन्हें पुलिस रिपोर्ट के कॉलम 2 में अभियुक्त या नामित के रूप में शामिल नहीं किया गया है, उस स्तर पर मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्तियों को अपराध का संज्ञान लेने के साथ-साथ सम्मन कर सकता है। अदालत ने अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश, पॉक्सो एक्ट, इलाहाबाद के एक आदेश के खिलाफ आसिफ अहमद सिद्दीकी की ओर से धारा 482 सीआरपीसी की तहत दायर याचिका को खारिज करते उक्त टिप्पणी की। सिद्दकी को धारा 323, 363, 328, 376घ(क), 377, 504, 506 आईपीसी और धारा 5/6 पॉक्सो एक्ट के तहत आरोपों का सामना करने के लिए सम्मन जारी किया गया था।। यह उनका प्राथमिक तर्क था कि सम्मन न्यायिक दिमाग के आवेदन के बिना जारी किया गया था, पूरी तरह से धारा 164 सीआरपीसी के तहत पीड़िता के बयान पर भरोसा करते हुए, भले ही जांच अधिकारी द्वारा एकत्र की गई सामग्री से, आवेदक के खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता था और यहां तक कि उसका नाम प्राथमिकी में, या पीड़िता के सीआरपीसी की धारा 161 के बयान में भी नहीं आया। दूसरी ओर, राज्य की ओर से पेश एजीए और पीड़ित के वकील ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट ने आरोपी को तलब किया था क्योंकि प्रथम दृष्टया उसके खिलाफ कथित अपराध का मामला बनता है। यह भी तर्क दिया गया कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत पीड़िता के बयान के साथ-साथ डॉक्टर के सामने उसके बयान में, उसने आवेदक के खिलाफ यौन उत्पीड़न के संबंध में विशिष्ट आरोप लगाए थे और इसलिए सम्मन आदेश सही तरीके से पारित किया गया था। इन प्रस्तुतियों के मद्देनजर अदालत ने शुरुआत में कहा कि धारा 173(2) के तहत एक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर एक मजिस्ट्रेट संहिता की धारा 190(1)(बी) के तहत एक अपराध का संज्ञान लेने का हकदार है, भले ही पुलिस रिपोर्ट इस आशय की हो कि आरोपी के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता है। अदालत ने आगे कहा कि मजिस्ट्रेट जांच के दौरान पुलिस द्वारा पेश किए गए गवाहों के बयानों को ध्यान में रख सकता है, शिकायत किए गए अपराध का संज्ञान ले सकता है और आरोपी को प्रक्रिया जारी करने का आदेश दे सकता है। इस पृष्ठभूमि में अदालत ने सम्मन आदेश को उचित पाया क्योंकि यह पाया गया कि वर्तमान मामले में आरोपी आवेदक का नाम धारा 164 सीआरपीसी के तहत दर्ज पीड़िता के बयान से प्रकाश में आया था। अदालत ने कहा कि आवेदक को सम्मन करते समय, सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए बयान के आधार पर, मजिस्ट्रेट ने वास्तविक शिकायतकर्ता द्वारा दायर एक स्वतंत्र आवेदन के आधार पर कार्रवाई की और पाया कि उसके पास पर्याप्त सामग्री थी, जो शिकायतकर्ता की मिलीभगत को दर्शाती है। उपरोक्त मामले में आवेदक को हालांकि चार्जशीट में जगह नहीं मिली और इसलिए, सम्मन आदेश में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी। नतीजतन, कार्यवाही और सम्मन आदेश को रद्द करने से इनकार करते हुए, अदालत ने याचिका खारिज कर दी।