जब आगे की जांच का आदेश दिया गया हो, धारा सीआरपीसी की धारा 317(2) के तहत ट्रायल का विभाजन नहीं किया जा सकताः सुप्रीम कोर्ट

Nov 10, 2023
Source: https://hindi.livelaw.in/

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि सीआरपीसी की धारा 317(2) के तहत ट्रायल विभाजित (Splitting of Trial) किए जाने का आदेश नहीं दिया जा सकता, जब आगे की जांच का आदेश पहले ही दिया जा चुका हो। इसके अलावा, ऐसा तब नहीं किया जा सकता जब जांच एजेंसी ने उसके समक्ष गैर-पता लगाने योग्य प्रमाणपत्र प्रस्तुत नहीं किया हो। सीआरपीसी की धारा 317(2) पर ध्यान देना उचित है, जिसमें कहा गया: यदि ऐसे किसी भी मामले में आरोपी का प्रतिनिधित्व किसी वकील द्वारा नहीं किया जाता है, या यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति को आवश्यक मानते हैं तो वह यदि उचित समझे और कारणों से उपस्थित हो सकता है। उसके द्वारा दर्ज किए जाने के लिए, या तो ऐसी जांच या सुनवाई को स्थगित कर दें, या आदेश दें कि ऐसे आरोपियों के मामले को उठाया जाए या अलग से सुनवाई की जाए।''जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस पंकज मित्तल की खंडपीठ मद्रास हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने आपराधिक पुनर्विचार याचिका की अनुमति दी और सीआरपीसी की धारा 317(2) के तहत ट्रायल विभाजित कर दिया। मामला संपत्ति के नुकसान से संबंधित है, जिसमें 31 आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 395, 397, 212, 120बी और तमिलनाडु सार्वजनिक संपत्ति नुकसान अधिनियम की धारा 3 के तहत अपराध शामिल हैं।खंडपीठ ने कहा, "हमने पाया है कि हाईकोर्ट ने 16 जुलाई, 2019 के आदेश में मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए कारणों पर भी विचार नहीं किया है। दूसरे, हाईकोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 13 फरवरी, 2019 को आगे की जांच पड़ताल की अनुमति दी थी। इसलिए जब हाईकोर्ट ने मुकदमे को विभाजित करने की अनुमति दी तो दो महत्वपूर्ण पहलुओं पर हाईकोर्ट द्वारा ध्यान नहीं दिया गया। पहला यह कि मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट नहीं थे कि पुलिस ने सभी अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त प्रयास किए। दूसरा कारक, जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह 13 फरवरी, 2019 को पारित आगे की जांच का आदेश है। इसलिए यह वह चरण नहीं है, जिस पर हाईकोर्ट मामले को विभाजित करने की अनुमति दे सकता है।मामला 2016 का है, जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी। यह आरोप लगाया गया कि आरोपी ने याचिकाकर्ता को यह विश्वास दिलाया कि वह पुराने नोटों (500,1000 रुपये) को 2000 रुपये के नए नोटों से बदल सकता है। याचिकाकर्ता ने 30 लाख रुपये ले लिए लेकिन आरोपियों ने उस पर हमला कर सारा पैसा छीन लिया। फिर उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। लेकिन बाद में याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर पाया कि जांच अधिकारी और कुछ आरोपी व्यक्तियों के बीच मिलीभगत थी, जिससे इस मामले में जांच समझौता हो गई। इसलिए उन्होंने इस बारे में पुलिस अधीक्षक (एसपी) को अभ्यावेदन दिया। इस प्रतिवेदन की जानकारी होने पर जांच अधिकारी ने जल्दबाजी में न्यायिक मजिस्ट्रेट के यहां दोषपूर्ण आरोप पत्र दाखिल कर दिया।इसके बाद एसपी ने प्रतिवादी नंबर 1 को आगे की जांच के लिए सीआरपीसी की धारा 173(8) के तहत याचिका दायर करने का निर्देश दिया, जिसे मजिस्ट्रेट ने अनुमति दे दी। इसके बाद प्रतिवादी नंबर 1 ने मुकदमे को विभाजित करने की मांग की, जिसे आगे की जांच के लिए चल रहे आदेश के कारण 2019 में ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया। फिर उन्होंने हाईकोर्ट के समक्ष आपराधिक पुनर्विचार आवेदन दायर किया, जिसने इसकी अनुमति दे दी और कुछ आरोपियों का ट्रायल विभाजित कर दिया।हाईकोर्ट ने कहा कि मामला 2016 से लंबित है, जहां 3 आरोपी व्यक्तियों के लिए समन जारी नहीं हुआ और कुल 30 आरोपी व्यक्तियों में से 8 अन्य के खिलाफ गैर-जमानती वारंट लंबित हैं। इसलिए एचसी ने निचली अदालत को आदेश दिया कि वह अनुपस्थित आरोपियों के खिलाफ ट्रायल विभाजित कर दे और बाकी आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही आगे बढ़ाए। इस आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की। याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड ए. वेलन ने किया और तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश से परिचित हुए बिना ही प्रतिवादी नंबर 1 के आवेदन के अनुसरण में आगे की जांच का आदेश पारित कर दिया।उन्होंने सुब्रमण्यम सेथुरमन बनाम महाराष्ट्र राज्य 2004 8 एससीसी 220 पर भरोसा करते हुए कहा कि धोखाधड़ी से प्राप्त आदेश अमान्य है। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि कोई भी संशोधन किसी अंतर्वर्ती आदेश के विरुद्ध नहीं होगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि सीआरपीसी की धारा 317 के तहत पारित आदेश एक अंतरिम आदेश है। उपरोक्त के आलोक में अदालत ने एचसी का फैसला रद्द कर दिया और 2019 में पारित न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश को बहाल कर दिया।