सुप्रीम कोर्ट वीकली राउंड अप : सुप्रीम कोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र

Sep 04, 2023
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सुप्रीम कोर्ट में पिछले सप्ताह (28 अगस्त, 2023 से 01 सितंबर, 2023 तक) तक क्या कुछ हुआ, जानने के लिए देखते हैं सुप्रीम कोर्ट वीकली राउंड अप। पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के कुछ खास ऑर्डर/जजमेंट पर एक नज़र। भगोड़े अपराधी को केवल असाधारण और दुर्लभ मामलों में अग्रिम जमानत दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भगोड़े अपराधी को अग्रिम जमानत केवल असाधारण और दुर्लभ मामले में ही दी जा सकती है। अदालत ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा प्रतिवादी को जमानत देने का आदेश रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। उक्त प्रतिवादी को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 82 के तहत भगोड़ा अपराधी (Proclaimed Offender) घोषित किया गया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष अनुच्छेद 370 याचिका के 14 वें दिन, उत्तरदाताओं द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की राष्ट्रपति की शक्तियों और जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिशी शक्ति से संबंधित दलीलें पेश की गईं। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना,जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में जबरन धर्म परिवर्तन मामले में ब्रॉडवेल क्रिश्चियन हॉस्पिटल सोसाइटी के अध्यक्ष और अन्य आरोपियों की याचिका पर नोटिस जारी किया। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को अंतरिम रूप से किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से सुरक्षा भी प्रदान की। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ इस मामले में राज्य पुलिस द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ दायर तीन नई प्रथम सूचना रिपोर्टो (एफआईआर) में कार्यवाही को रद्द करने से इनकार करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के जुलाई 2023 के आदेश को चुनौती देने वाली उनकी याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस साल की शुरुआत में, शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं को पहली एफआईआर के संबंध में सुरक्षा प्रदान की थी। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि शून्य या अमान्य विवाह से पैदा हुआ बच्चा मिताक्षरा कानून द्वारा शासित हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) में माता-पिता के हिस्से का हकदार है। साथ ही ये भी स्पष्ट किया कि ऐसे बच्चे को जन्म से एचयूएफ सहदायिक नहीं माना जा सकता है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, "यदि कोई व्यक्ति शून्य या अमान्य विवाह से पैदा हुआ है, जिसे हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 16 की उप-धारा (1) या (2) द्वारा वैधता प्रदान की गई है, तो उसका मिताक्षरा कानून द्वारा शासित हिंदू अविभाजित परिवार में जन्म के आधार पर हित होना चाहिए, यह निश्चित रूप से बच्चे के माता-पिता के अलावा अन्य लोगों के अधिकारों को प्रभावित करेगा।" सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भारत सरकार और मणिपुर राज्य सरकार को मणिपुर हिंसा से प्रभावित लोगों को भोजन, दवाएं और अन्य आवश्यक वस्तुओं जैसी बुनियादी आपूर्ति का वितरण सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने नाकाबंदी से निपटने का निर्देश दिया क्योंकि इससे लोगों तक राशन नहीं पहुंच पा रहा है, और सरकार से ऐसा करने के लिए सभी विकल्प तलाशने का आग्रह किया जिसमें लोगों के लिए एयर ड्राप से राशन पहुंचाने का विकल्प भी शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में शुक्रवार को कहा कि अमान्य/शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने मृत माता-पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने के हकदार हैं, जो उन्हें हिंदू सहदायिक संपत्ति के काल्पनिक विभाजन पर आवंटित किया गया होगा। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह फैसला केवल हिंदू मिताक्षरा कानून द्वारा शासित हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्तियों पर लागू है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 3-जजों की पीठ रेवनासिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2011) मामले में दो-जजों की पीठ के फैसले के खिलाफ एक संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि शून्य/अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति के उत्तराधिकार के हकदार हैं, चाहे वह स्वअर्जित हो या पैतृक। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर जातीय संघर्ष से संबंधित यौन हिंसा के मामलों को असम ट्रांसफर करते हुए कई दिशा निर्देश जारी किए। उल्लेखनीय है कि यौन हिंसा से जुड़े मामलों की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) कर रही है, और वर्तमान में ऐसे मामलों की संख्या 27 हो चुकी है। अदालत के निर्देशों में कानूनी कार्यवाही को सुव्यवस्थित करने, न्याय तक पहुंच प्रदान करने और सेवानिवृत्त हाईकोर्ट के जजों वाली एक महिला समिति द्वारा की जा रही जांच को सुविधाजनक बनाने का निर्देश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट एफआईआर रद्द कर सकते हैं, भले ही सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका लंबित होने के दौरान आरोप पत्र (Charge Sheet) दायर किया जा चुका हो। जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने यह टिप्पणी की, "यह अच्छी तरह से स्थापित है कि हाईकोर्ट के पास एफआईआर रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर याचिका पर विचार करने और कार्रवाई करने की शक्ति बनी रहेगी, भले ही ऐसी याचिका के लंबित रहने के दौरान पुलिस द्वारा आरोप पत्र दायर किया जा चुका हो।" अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में संविधान पीठ की कार्यवाही के 13 वें दिन, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने उत्तरदाताओं द्वारा दिए गए तर्कों को सुना। असंभवता राष्ट्रपति की शक्तियों को पंगु नहीं बना सकती: एजी एजी द्वारा उठाए गए तर्कों का पहला पहलू यह था कि कानून किसी को वह काम करने के लिए मजबूर नहीं करता जो वह नहीं कर सकता। इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि चूंकि संविधान सभा पहले ही भंग हो चुकी है, इसलिए राष्ट्रपति को अब अनुच्छेद 370(3) के तहत अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए उसकी सिफारिश लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि संविधान सभा की सिफारिश को स्वीकार करना अब असंभव है लेकिन इसका राष्ट्रपति की शक्ति को पंगु बनाने और अनुच्छेद 370(3) के मूल भाग को निष्क्रिय करने का प्रभाव नहीं हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को पूर्व सांसद (एमपी) और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता प्रभुनाथ सिंह को 1995 के दोहरे हत्याकांड मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। शीर्ष अदालत ने मृतकों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा देने का भी निर्देश दिया। घटना में घायलों को पांच-पांच लाख रुपये देने का निर्देश दिया। ये मुआवजा बिहार सरकार और दोषी अलग-अलग देंगे। अदालत ने सिंह को आईपीसी की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास के अपराध में सात साल कैद की सजा भी सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फाइनल रिपोर्ट प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट नाराजी याचिका (Protest Petition) को शिकायत मामले के रूप में स्वीकार करने के लिए अपने विवेक का प्रयोग कर सकते है। जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 173 के तहत पुलिस रिपोर्ट प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट तीन विकल्पों का उपयोग कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आयुक्त और कर्मचारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 के तहत समयसीमा का अनुपालन करें। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि अनुपालन में विफलता के मामले में समय-सीमा को लेकर गलती करने वाले कर्मचारियों के विरुद्ध कार्रवाई की जानी चाहिए। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस एसवी भट्टी की पीठ ने टिप्पणी की, ".. हमारा विचार है कि ईपीएफओ के आयुक्त और कर्मचारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने चाहिए कि दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 के तहत प्रदान की गई समयसीमा का अनुपालन हो। विफलता के कानूनी परिणाम हो सकते हैं। ईपीएफओ के कर्मचारियों को अवश्य ही ऐसा करना चाहिए। अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए परिणामों से अवगत रहें। यदि कर्तव्य में लापरवाही होती है, तो दोषी कर्मचारियों के खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए।'' सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को जून 2014 के बाद स्थापित मेडिकल कॉलेजों में 'कम्पीटेंट अथॉरिटी कोटा' (Competent Authority Quota) में स्थानीय उम्मीदवारों के लिए 100 प्रतिशत आरक्षण की तेलंगाना सरकार की शुरू की गई नई नीति को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। 3 जुलाई को राज्य सरकार के आदेश के अनुसार, तेलंगाना के गठन के बाद स्थापित मेडिकल कॉलेजों में सभी सक्षम प्राधिकारी कोटा सीटें राज्य में रहने वाले स्थानीय एमबीबीएस उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने गुरुवार को कहा कि वह जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए कोई सटीक समयसीमा नहीं दे सकती। साथ ही यह स्पष्ट किया कि जम्मू-कश्मीर का केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा अस्थायी होगा। भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संविधान पीठ से कहा, "मैं पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए सटीक समय अवधि देने में असमर्थ हूं, जबकि यह कह रहा हूं कि केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा अस्थायी स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि दावेदार ट्रैक्टर से जुड़े ट्रेलर में यात्रा कर रहा है, जिसका बीमा नहीं किया गया है तो बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं है। न्यायाधीशों की खंडपीठ ने कहा कि जब कोई ट्रैक्टर और ट्रेलर शामिल होता है तो ट्रैक्टर और ट्रेलर दोनों का बीमा कराना आवश्यक होता है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मामले में मुआवजे को 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ बढ़ाकर 9,99,280/- रुपये कर दिया। लेकिन यह ध्यान में रखते हुए कि दावेदार ट्रैक्टर से जुड़े ट्रेलर में यात्रा कर रहा था, जिसका बीमा नहीं किया गया था, हालांकि ट्रैक्टर का बीमा किया गया था, हाईकोर्ट ने बीमा कंपनी को दोषमुक्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि अगर आरोपियों को मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के उसके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया गया है तो यह एनडीपीएस एक्ट की धारा 50 के तहत प्रदान की गई सुरक्षा का उल्लंघन है। इस मामले में आरोपियों को ट्रायल कोर्ट ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 की धारा 20(बी)(ii)(सी) के तहत दोषी ठहराया था। उनकी अपीलों को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। अभियुक्त ने दस साल के कठोर कारावास की पूरी मूल सजा और जुर्माना अदा न करने पर छह महीने की अवधि की सजा काट ली। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से संबंधित कार्यवाही में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ द्वारा कई दिलचस्प सवाल उठाए गए। कार्यवाही में, पीठ ने इस बारे में मौखिक टिप्पणियां भी कीं कि इसे "मामले का मूल" कहा गया है, यानी, क्या केंद्र सरकार जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द करने के लिए अनुच्छेद 370 में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 367 का उपयोग कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि एक हिंदू महिला को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 14 के तहत अधिकारों का दावा करने के लिए, संपत्ति पर उसका कब्जा होना चाहिए। धारा 14 में कहा गया है कि एक हिंदू महिला की संपत्ति उसकी पूर्ण संपत्ति होगी। धारा 14(1) में कहा गया है, ''किसी हिंदू महिला के पास मौजूद कोई भी संपत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के शुरू होने से पहले या बाद में अर्जित की गई हो, वह उसकी पूर्ण मालिक के रूप में रखी जाएगी, न कि सीमित मालिक के रूप में।'' सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 याचिकाओं पर संविधान पीठ की कार्यवाही के ग्यारहवें दिन (28 अगस्त) केंद्र सरकार से पूछा कि क्या जम्मू और कश्मीर राज्य को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में अपग्रेड करने की कार्रवाई वास्तव में संघीय सिद्धांत के अनुरूप है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ इस पीठ की अध्यक्षता कर रहे है। पीठ में जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत भी शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक बहुत जरूरी न हो तब तक सरकारी अधिकारियों के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए। जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस संजय करोल की खंडपीठ ने कहा, "अदालत की टिप्पणियां हर समय न्याय, निष्पक्ष और संयम के सिद्धांतों द्वारा शासित होनी चाहिए। साथ ही इस्तेमाल किए गए शब्दों में संयम प्रतिबिंबित होना चाहिए।" इस मामले में शिखा ट्रेडिंग कंपनी ने पंजाब के उत्पाद एवं कराधान विभाग के अधिकारियों द्वारा उसकी दुकान की अवैध सीलिंग के खिलाफ रिट याचिका दायर की थी। इसकी अनुमति देते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि सहायक उत्पाद शुल्क कराधान आयुक्त (एईटीसी लुधियाना-I) के पद पर तैनात राज्य के अधिकारी ऋषि पाल सिंह ने झूठा बचाव करते हुए हलफनामा दायर किया था। इसलिए उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के साथ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का निर्देश दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के 11 वें दिन, सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि अनुच्छेद 35ए जो जम्मू और कश्मीर (जे एंड के) के स्थायी निवासियों को विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करता था, का असर ये हुआ कि भारतीय नागरिकों के तीन मौलिक अधिकारों को हटा दिया गया , अर्थात्, अनुच्छेद 16 (1) (राज्य के तहत रोजगार के अवसर की समानता), पूर्ववर्ती अनुच्छेद 19 (1) (एफ) (अचल संपत्ति अर्जित करने का अधिकार, जो अब अनुच्छेद 300 ए के तहत प्रदान किया गया है) और अनुच्छेद 19(1)(ई) (भारत के किसी भी हिस्से में रहने और बसने का अधिकार)। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को फैसला सुनाया कि वकीलों को अदालत के अधिकारी होने के नाते, अपनी व्यावसायिक क्षमता में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (तमिलनाडु राज्य पर लागू) के अनुसार 'आत्मसम्मान विवाह' संपन्न कराने या स्वेच्छा से विवाह करने की अंडरटेकिंग से बचना चाहिए। हालांकि, वे मित्र या रिश्तेदार के रूप में अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं में विवाह के गवाह के रूप में खड़े हो सकते हैं। जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने एस बालाकृष्णन पांडियन बनाम पुलिस निरीक्षक मामले में 2014 के मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए ये महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं, जिसमें कहा गया था कि वकीलों द्वारा संपन्न कराई गई शादियां वैध नहीं हैं और सुयममरियाथाई विवाह (आत्मसम्मान विवाह) को गुप्त रूप से संपन्न नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक उल्लेखनीय फैसला सुनाया है जिसमें उन कारकों को समझाया गया है जिन्हें सरकार को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 432 के अनुसार दोषियों को सजा में छूट देने का निर्णय लेते समय ध्यान में रखना चाहिए। अन्य विचारों (जैसे कि अपराध की प्रकृति, क्या इसने बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित किया, इसकी पुनरावृत्ति की संभावना आदि) के अलावा, सरकार को भविष्य में अपराधी द्वारा अपराध करने की क्षमता पर विचार करते समय यह भी देखना चाहिए कि क्या निरंतर कारावास का कोई सार्थक उद्देश्य शेष है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में माना कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में सबूत का बोझ प्रतिवादी के खिलाफ लगाए गए आरोप की विशिष्ट प्रकृति और उनके द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण पर निर्भर करता है। इसमें कहा गया, “यह अच्छी तरह से तय है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में सबूत के बोझ का सवाल आरोप की प्रकृति और प्रतिवादी द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण की प्रकृति पर निर्भर करेगा। किसी दिए गए मामले में स्पष्टीकरण के आधार पर बोझ प्रतिवादी पर स्थानांतरित किया जा सकता है। किसी उम्मीदवार द्वारा लंबित आपराधिक मामले के बारे में "महत्वपूर्ण जानकारी को छिपाने" से संबंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सत्यापन प्रक्रिया के दौरान उम्मीदवारों से जानकारी मांगते समय विशिष्टता के महत्वपूर्ण पहलू पर प्रकाश डाला। इसने अवतार सिंह बनाम भारत संघ (2016) 8 SC 471 में निर्धारित सिद्धांत को दोहराया कि- “छिपाव या गलत जानकारी का निर्धारण करने के लिए सत्यापन/सत्यापन फॉर्म विशिष्ट होना चाहिए, अस्पष्ट नहीं। केवल वही जानकारी प्रकट की जानी है जिसका विशेष रूप से उल्लेख किया जाना आवश्यक है। यदि जानकारी नहीं मांगी गई है, लेकिन प्रासंगिक है और नियोक्ता को पता चल जाती है, तो फिटनेस के प्रश्न को संबोधित करते समय उस पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार किया जा सकता है। हालांकि, ऐसे मामलों में, उस तथ्य को दबाने या गलत जानकारी प्रस्तुत करने के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती, जिसके बारे में पूछा ही नहीं गया था।'' सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 307 के तहत किसी आरोपी की सजा बरकरार रखी जा सकती है, भले ही शिकायतकर्ता को लगी चोटें बहुत साधारण प्रकृति की हों। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने कहा, जो महत्वपूर्ण है वह अपीलकर्ता/अभियुक्त द्वारा किए गए खुले कृत्य के साथ जुड़ा इरादा है। इस मामले में अपीलकर्ता-अभियुक्त को आईपीसी की धारा 307 और 332 के तहत अपराध के लिए समवर्ती रूप से दोषी ठहराया गया। उक्त अपराधों के लिए क्रमशः पांच साल और दो साल के कठोर कारावास से गुजरने का निर्देश दिया गया।