अगर मां का जीवन है खतरे में,रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर कर सकता है गर्भपात-बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

Apr 06, 2019

अगर मां का जीवन है खतरे में,रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर कर सकता है गर्भपात-बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को तीन महिलाओं द्वारा दायर तीन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लैंडमार्क निर्देश जारी किए है।महिलाओं ने अपनी प्रेगनंसी को मेडिकल तौर पर टर्मिनेट करने की अनुमति मांगी थी क्योंकि उनकी प्रेगनंसी बीस सप्ताह से ज्यादा की हो गई थी। जस्टिस ए.एस ओका व जस्टिस एम.एस सोनक की खंडपीठ ने माना कि अगर एक रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर को यह लगता है कि गर्भवती महिला की जान बचाने के लिए गर्भपात किया जाना जरूरी है तो ऐसी स्थिति में वह बिना हाईकोर्ट की अनुमति के भी बीस सप्ताह के ज्यादा की प्रेगनंसी का गर्भपात यानि मेडिकली टर्मिनेट कर सकता है। कोर्ट ने यह भी माना है कि किसी मामले में मां की जान बचाने के लिए अगर प्रेगनंसी को मेडिकली टर्मिनेट करने की कोशिश की जाती है और बच्चा जिंदा पैदा हो जाता है। तो ऐसे मामलों में अगर बच्चे के माता-पिता उसको पालने में असमर्थ है या उसे लेने के इच्छुक नहीं है तो ऐसी स्थिति में बच्चे की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होगी। हालांकि कोर्ट ने इस मामले में तीनों महिलाओं को उनकी प्रेगनंसी टर्मिनेट कराने की अनुमति दे दी है,परंतु इन याचिकाओं को अभी लंबित रखा गया है क्योंकि इनमें महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया गया है। कोर्ट ने कहा कि-इस तरह के मामलों में तुरंत राहत के लिए बहुत सारी याचिकाएं दायर की जाती है। चूंकि इस तरह के मामलों में हर बीतने वाले दिन से मां व उसके बच्चे की स्थिति बदलती रहती है। इस तरह के बदलाव सीधा-सीधा उन राहत को प्रभावित करते है,जिनकी याचिका के जरिए मांग की जाती है। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में सीनियर एडवोकेट डी.जे खामबत्ता को एमिक्स क्यूरी यानि कोर्ट मित्र नियुक्त किया है।

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एमटीपी एक्ट व राईट टू लाइफ
मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेगनंसी एक्ट को एक अप्रैल 1972 को बनाया गया था। ताकि कुछ प्रेगनंसी को रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर द्वारा टर्मिनेट किया जा सके। वर्ष 2002 में इस एक्ट में संशोधन किया गया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कई फैसलों को देखने के बाद खंडपीठ ने कहा कि-सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों को देखने के बाद यही सारांश निकला है कि सुप्रीम कोर्ट ने एमटीपी एक्ट के सेक्शन 5 का आशय बताया हैै। सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐसे मामलों में बीस सप्ताह से ज्यादा की प्रेगनंसी को टर्मिनेट करने की अनुमति दी है,जिनमें मेडिकल ओपिनियन से यह साबित हुआ है कि प्रेगनंसी को जारी करने से मां के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है या इस तरह का रिस्क पाया गया कि अगर बच्चे का जन्म हुआ तो वह गंभीर रूप से शारीरिक या मानसिक रूप से अपाहिज होगा।ऐसा तब भी हुआ है,जब यह पाया गया है कि तुरंत मां के जीवन को कोई खतरा नहीं है। अगर एमटीपी एक्ट के सेक्शन 5(1) के तहत 'लाइफ' शब्द की अभिव्यक्ति को सिर्फ शारीरिक तौर पर रहने या जीने से न जोड़ा जाए तो इस एक्ट के तहत बीस सप्ताह से ज्यादा की उस प्रेगनंसी को टर्मिनेट करने की अनुमति दी जा सकती है,जिसको जारी रखने से मां के स्वास्थ्य को खतरा हो।      

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 कोर्ट ने कहा कि जीवन व जीने के अधिकार को लेकर उठा सवाल विवाद के योग्य है-
कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों को देखने के बाद यही पाय गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐसे मामलों में बीस सप्ताह से ज्यादा की प्रेगनंसी को टर्मिनेट करने की अनुमति दी है,जिनमें मेडिकल ओपिनियन से यह साबित हुआ है कि प्रेगनंसी को जारी करने से मां के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है या इस तरह का रिस्क पाया गया कि अगर बच्चे का जन्म हुआ तो वह गंभीर रूप से शारीरिक या मानसिक रूप से अपाहिज होगा।जबकि एमटीपी एक्ट के सेक्शन 3(2) के तहत बीस सप्ताह के बाद रोक लगी है। इससे साफ है कि सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न मामलों में एमटीपी एक्ट के सेक्शन पांच की व्याख्या करते समय प्रिंसीपल आॅफ नारडरो या लिटरल कंस्ट्रक्शन को नहीं अपनाया गया है। बल्कि प्रिसीपल आॅफ लिबरल या प्रपोसिव को अपनाया गया है।
फैसला
बेंच ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा एम नागराज बनाम यूनियन आॅफ इंडिया मामले में राईट टू लाइफ एंड ह्यूमन डिग्निटी एंड स्टेट रिस्पोनसिब्लिटी टू फैसिलेट दॉ राईट,लिबर्टी एंड फ्रीडम आॅफ इंडिवजवल पर दिए गए फैसले का हवाला देते हुए कहा कि- अगर कोई बच्चा प्रेगनंसी का मेडिकल टर्मिनेशन करने के प्रयास के बावजूद जिंदा पैदा हो जाता है तो ऐसे में माता-पिता व डाक्टर,सबकी यह जिम्मेदारी बनती है कि उसे बच्चे की देखभाल करे। बच्चे के भले के लिए इस बात पर विचार किया जाए कि कैसे उसका इलाज हो। दुर्भाग्यवश,अगर बच्चे के माता-पिता बच्चे की देखभाल करने के इच्छुक नहीं है या इस स्थिति में नहीं है कि उसकी देखभाल कर सके। तो ऐसे में बच्चे के माता-पिता की जिम्मेदारी राज्य के पास चली जाती है। इतना ही नहीं ऐसे मामले में ज्यूवनाईल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन)एक्ट 2015 के प्रावधान भी लागू होते है। इसलिए कोर्ट ने माना है कि एक रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर बिना कोर्ट की अनुमति के भी बीस सप्ताह से ज्यादा की प्रेगनंसी को टर्मिनेट कर सकता है,बशर्ते तुरंत ऐसा न किए जाने से बच्चे की मां की जान को खतरा हो। इसके अलावा अन्य परिस्थितियों में हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी है। संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत मिले अधिकारों का प्रयोग करते हुए यह कोर्ट प्रेगनंसी के मेडिकल टर्मिनेशन की अनुमति दे रही है। वहीं इस प्रक्रिया में अगर बच्चा जिंदा पैदा हो जाता है और उसके माता-पिता उसे रखने के इच्छुक नहीं है या ऐसी स्थिति में नहीं है तो राज्य और उसकी एजेंसी ऐसे बच्चे की पूरी जिम्मेदारी उठाए और बच्चे को पूरी मेडिकल व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराएं। बेंच ने इस मामले में राज्य को निर्देश दिया है कि वह हरेक जिले में एक-एक मेडिकल बोर्ड का गठन करे ताकि वह उन महिलाओं के मामलों की जांच कर सके,जो इस तरह गर्भपात करवाना चाहती है। वहीं राज्य को यह भी निर्देश दिया जाता है कि वह ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को सुविधाएं उपलब्ध कराने पर ध्यान दे ताकि वह स्वच्छता में रह सके और अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे पाए।

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