सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा, चुनावी उम्मीदवारों की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ोतरी पर निगरानी के लिए अब तक कोई स्थायी तंत्र क्यों नहीं ?
गैर सरकारी संगठन लोकप्रहरी द्वारा दाखिल अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि उम्मीदवारों की संपत्ति में अप्रत्याशित बढ़ोतरी पर निगरानी के लिए कोई स्थायी तंत्र क्यों नहीं बनाया गया है।
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने केंद्रीय कानून मंत्रालय के विधायी विभाग के सचिव को 2 हफ्ते में जवाब दाखिल करने के लिए नोटिस जारी किया है। साथ ही पीठ ने ये भी पूछा है कि अभी तक फार्म 26 में वो घोषणा शामिल क्यों नहीं की गई है जिसके तहत उम्मीदवार ये घोषणा करे कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून के किसी प्रावधान के तहत अयोग्य नहीं है। पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार खुद ही ऐसा करने पर सहमत हुई थी।
वहीं, इस दौरान याचिकाकर्ता लोकप्रहरी संस्था की ओर से कहा गया कि पिछले साल के आदेश के बावजूद इस व्यवस्था को लागू नहीं किया गया है। लिहाजा पीठ वर्ष 2019 के चुनाव में इसे लागू करने के आदेश जारी करे। लेकिन पीठ ने इस पर कोई निर्देश जारी नहीं किया।
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इससे फरवरी 2018 में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सासंद और विधायक का चुनाव लड़ते वक्त चुनावी हलफनामे में उम्मीदवार को अपनी, अपने जीवनसाथी, आश्रितों की आय के स्रोत का खुलासा भी करना होगा। जस्टिस जे. चेलामेश्वर और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की बेंच ने ठॠड लोक प्रहरी की याचिका पर ये फैसला सुनाया था।
जस्टिस जे. चेलामेश्वर ने कहा था, "याचिका में प्रार्थना को अनुमति दी जाती है। केवल वो जिनमें का कानून में संशोधन की जरूरत है, मंजूर नहीं की जा रही हैं और ये संसद पर है कि वो इस पर फैसला ले।
" सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि ये राज्य का कर्तव्य है कि वो मतदाताओं तक सासंदों, विधायकों के बारे में पूरी जानकारी पहुंचाए और सरकार ऐसा स्थायी मैकेनिज्म बनाए जो वक्त वक्त पर सासंद, विधायकों और उनके सहयोगियों की संपत्ति पर नजर रखे और डेटा इकट्ठा करे।
अगर किसी की आय से अधिक संपत्ति का मामला आता है तो इसकी रिपोर्ट तैयार करे और या तो कार्रवाई के लिए एजेंसी में दे या फिर सदन में रखे। साथ ही इस पूरी रिपोर्ट और उसकी जांच को सावर्जनिक किया जाए ताकि जब अगली बार प्रत्याशी चुनाव लड़ता है तो मतदाताओं को उसके बारे में जानकारी हो। सासंद विधायकों द्वारा आय से अधिक संपत्ति इकट्ठा करना रूल ऑफ लॉ नहीं बल्कि रूल ऑफ माफिया का रास्ता साफ करता है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने लोक प्रहरी एनजीओ की याचिका पर सुनवाई कर 12 सितंबर 2017 को फैसला सुरक्षित रखा था। लोक प्रहरी एनजीओ ने यह याचिका दाखिल कर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव सुधारों को लेकर आदेश दे कि नामांकन के वक्त प्रत्याशी अपनी और अपने परिवार की आय के स्त्रोत का खुलासा भी करे।
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अप्रैल 2017 में अपने हलफनामे में चुनाव सुधारों को लेकर केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि नामांकन के वक्त प्रत्याशी द्वारा अपनी, अपने जीवन साथी और आश्रितों की आय के स्त्रोत की जानकारी जरूरी करने को केंद्र तैयार है। केंद्र ने कहा था कि काफी विचार करने के बाद इस मुद्दे पर नियमों में बदलाव का फैसला लिया गया है। हलफनामे में केंद्र ने ये भी कहा कि उसने याचिकाकर्ता की ये बात भी मान ली गई है जिसमें कहा गया था कि प्रत्याशी से स्टेटमेंट लिया जाए कि वो जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत अयोग्य करार देने वाले प्रावधान में शामिल नहीं है।
हालांकि अपने हलफनामे में केंद्र इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रहा कि कोई जनप्रतिनिधि अगर किसी सरकारी या पब्लिक कंपनी में कांट्रेक्ट वाली कंपनी में शेयर रखता है तो उसे अयोग्य करार दिया जाए। केंद्र ने कहा था कि यह मामला पालिसी का है।
हालांकि केंद्र ने नामांकन में गलत जानकारी देने पर प्रत्याशी को अयोग्य करार देने के मामले का विरोध किया, कहा ये फैसला लेने का अधिकार विधायिका का है। इससे पहले चुनाव आयोग भी इस मामले में अपनी सहमति जता चुका है। चुनाव आयोग ने कहा था कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए नियमों में ये बदलाव जरूरी हैं। पहले के नियमों के मुताबिक प्रत्याशी को नामांकन के वक्त अपनी, जीवनसाथी और 3 आश्रितों की चल-अचल संपत्ति व देनदारी की जानकारी देनी होती है। लेकिन इसमें आय के स्त्रोत बताने का नियम शामिल नहीं था।
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