IPC की धारा 84 के अंतर्गत Unsoundness of Mind (चित्त-विकृति) क्या है और किन परिस्थितियों में मिलता है इसका लाभ 'साधारण अपवाद श्रृंखला' 3

Jun 06, 2019

IPC की धारा 84 के अंतर्गत Unsoundness of Mind (चित्त-विकृति) क्या है और किन परिस्थितियों में मिलता है इसका लाभ 'साधारण अपवाद श्रृंखला' 3

हमने समझा कि क्षम्य (Excusable) कृत्य के अंतर्गत किन परिस्थितियों में दुर्घटना (धारा 80) या इन्फैन्सी (धारा 82,83) किसी भीअपराध के लिए कब अपवाद बन सकती है। जहाँ दुर्घटना या दुर्भाग्य के अंतर्गत, कार्य का विधिपूर्ण होना जरुरी है (और भी तमाम शर्तों के साथ), वहीँ 7 से 12 वर्ष की आयु के शिशु में अपने कार्य के परिणाम और उसकीप्रकृति को न समझ पाना आवश्यक है (धारा 83)। इस श्रृंखला के भाग 1में हमने भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत 'साधारण अपवाद' (General Exceptions) क्या हैं, यह समझा और यहजाना कि कैसे यह अध्याय ऐसे कुछ अपवाद प्रदान करता है, जहाँ किसी व्यक्ति का आपराधिक दायित्व खत्म हो जाता है। इसी भाग में हम भारतीय दंड संहिता की धारा 76 और 79 के अंतर्गत 'तथ्य की भूल' को भी समझचुके हैं। मौजूदा लेख में हम क्षम्य (Excusable) कृत्य के अंतर्गत धारा 84 को समझेंगे। आगामी लेखों में हम 'साधारण अपवाद' अध्याय एवं इसके अंतर्गत आने वाली धाराओं को, क्षम्य कृत्य (Excusable act) एवं तर्कसंगत कृत्य(Justifiable act) वर्गीकरण के आधार पर समझेंगे।

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विकृत-चित्त व्यक्ति का कार्य (धारा 84, भारतीय दंड संहिता 1860)

जैसा कि हम जानते हैं कि कानून उन चीजों के लिए एक व्यक्ति को दंडित करने का इरादा नहीं करता है, जिस चीज़ पर वह व्यक्ति संभवतः कोई नियंत्रण नहीं रख सकता था। 'Actus non facit reum nisi mens sit rea' (एक कृत्य आपराधिक मनोवृत्ति के बिना किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता है) का सिद्धांत, केवल एक अनुस्मारक के रूप में काम करता है, जो यह बताता है कि आपराधिक कानून किसी व्यक्ति को दंडित करने के लिएउस व्यक्ति में किसी प्रकार के दोषी मानसिक तत्व guilty mental element/guilty mind को ढूंढता है। और यह जाहिर है कि दोषी मानसिक तत्व की अनुपस्थिति में व्यक्ति को किसी प्रकार की कोई सजा दी नहीं जासकती है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 84 कहती है, "कोई बात अपराध नहीं है, जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है, जो उसे करते समय चित्त-प्रकृति (unsoundness of mind) के कारण उस कार्य की प्रकृति, या यह कि जोकुछ वह कर रहा है वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है, जानने में असमर्थ है।" हम सबने इस श्रृंख्ला के पिछले दोनों लेखों में यह समझा है कि किस प्रकार क्षम्य (Excusable) कृत्यों को, आपराधिक मनोवृत्ति की निहित आवश्यकता के अभाव में आपराधिक दायित्व (Criminal liability) से मुक्त कियाजाता है। यह धारा (84) भी उससे अलग नहीं है, इसके अंतर्गत एक विकृत-चित्त (insane) व्यक्ति को इसलिए अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाता क्यूंकि वह आपराधिक मनोवृत्ति (criminal intent) का निर्माण करनेमें अक्षम है।

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साफ़ तौर पर इस धारा के अंतर्गत एक विकृत-चित्त व्यक्ति को अपराध के लिए दोषी उस स्थिति में नहीं माना जाता जहाँ वह अपराध करते वक्त विकृत-चित्त का था और ऐसी अवस्था के चलते, वह उस कृत्य (जोकि एकअपराध का निर्माण करता था) का स्वाभाव (nature) नहीं समझता था, या फिर इस बात से अनजान था कि वह कृत्य विधि के विरुद्ध contrary to law) है या वह कार्य गलत है। मुख्य रूप से ध्यान देने वाली बात यह है किवह कृत्य करने के दौरान अगर व्यक्ति विकृत-चित्त का था (भले ही अन्यथा वह स्वस्थ-चित्त का रहा हो) तो उसे इस धारा के अंतर्गत उस अपराध के लिए दोषी नहीं समझा जायेगा।

धारा 84 एवं मैकनौटन का वाद

M'Naghten नियम (या परीक्षण) 19वीं शताब्दी के मध्य में इंग्लिश हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा स्थापित किया गया था और इसमें मुख्य रूप से यह अभिनिर्णित किया गया था कि  "प्रत्येक व्यक्ति का समझदार होना माना जाता है, और... विकृत-चित्त के आधार पर बचाव स्थापित करने के लिए, यह स्पष्ट रूप से साबित किया जाना चाहिए कि, अपराध करते समय अभियुक्त चित्त-विकृति से जूझ रहा था।"भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 84 पूर्ण रूप से मैकनौटन [(1843) 8 Eng Rep 718] के वाद पर आधारित है। इस वाद में, सेंट मार्टिन, मिडलसेक्स के पैरिश में, डैनियल मैकनौटन ने एक पिस्तौल ली और एडवर्डड्रमंड को यह समझते हुए गोली मार दी (जनवरी 1843 में) कि वह ब्रिटिश प्रधान मंत्री रॉबर्ट पेल है, और उसे बुरी तरह से घायल कर दिया। ड्रमंड की पांच दिन बाद मृत्यु हो गई और मैकनौटन पर उनकी हत्या का आरोपलगाया गया। मैकनौटन ने पागलपन के कारण दोषी नहीं होने का बचाव पेश किया। मैकनौटन के खिलाफ आरोप के संबंध में, लॉर्ड्स के मुख्य न्यायाधीश टिंडल ने कहा कि, "यह निर्धारित किये जाने लायक प्रश्न है कि क्या उस समय जब अपराध किया गया था, तब आरोपी के द्वारा अपनी समझ का उपयोगकिया गया था या नहीं, जिससे वह यह समझ सके कि वह एक गलत या आपराधिक कार्य कर रहा था।

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इस मामले में मुख्य रूप से 3 सिद्धांतों को रेखांकित किया गया था

हर आदमी को समझदार समझा जाता है, और उसे उसके अपराधों के लिए ज़िम्मेदार माना जात है, जबतक कि इसके विपरीत साबित न हो जाये; 2- Insanity का बचाव स्थापित करने के लिए, यह स्पष्ट रूप से साबित किया जाना चाहिए कि, अपराध करते समय, अभियुक्त विकृत-चित्त की ऐसी अवस्था से गुजर रहा था कि वह अपराध की प्रकृति एवं गुण कोनहीं समझता था; या, अगर वह यह जानता भी था, तो वह यह नहीं जानता था कि वह जो कर रहा है वो 'गलत' था। 3- अपराध की सदोषता (wrongfulness) का परीक्षण, सही और गलत के बीच अंतर करने की शक्ति में है, न कि सामान्य रूप से, बल्कि उस विशेष अपराध के संबंध में धारा 84 के महत्वपूर्ण भाग चित्त-प्रकृति (unsoundness of mind) 'चित्त-विकृति' या 'unsoundness of mind को संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, हालाँकि यह व्यक्ति के मस्तिष्क की वह अवस्था है जहाँ अभियुक्त, उस कृत्य (जोकि एक अपराध का निर्माण करता था) कास्वाभाव (nature) नहीं समझता था, या फिर इस बात से अनजान था कि वह कृत्य विधि के विरुद्ध (contrary to law)है या वह कार्य गलत है [भारत कुमार बनाम राजस्थान राज्य (2004) Cr LJ 1958 (Raj) कोई व्यक्ति विकृत-चित्त का है अथवा नहीं इसके लिए लागू किया जाने वाला मानक यह है कि क्या साधारण मानक के अनुसार, जो आम तौर अपनाया जाए, किया गया कृत्य सही था या गलत था? यह तथ्य कि एक आरोपीअजीब हो गया था, चिड़चिड़ा हो गया था या उसका दिमाग बिलकुल ठीक नहीं था (वह कार्य करते हुए), या यह कि वह शारीरिक और मानसिक बीमारियों से ग्रस्त है, जिसने उसकी बुद्धि को कमजोर बना दिया था औरउसकी भावनाओं और इच्छाशक्ति को प्रभावित कर दिया था, या वह अतीत में कुछ असामान्य कार्य करता था, या कि उसे कुछ नियमित पर पागलपन के पुनरावर्ती झटके लगते हैं, या कि उसे मिरगी के दौरे आते हैं, लेकिनउसके व्यवहार में कुछ भी असामान्य नहीं है, उसे इस धारा के अंतर्गत दोष से मुक्ति नहीं मिल सकती है। [बापू उर्फ गुजराज सिंह बनाम राजस्थान राज्य, (2007) 8 SCC 66] हरि सिंह गोंड बनाम मध्य प्रदेश राज्य [AIR 2009 SC 31] के वाद में अदालत का निर्णय था कि, प्रत्येक व्यक्ति, जो मानसिक रूप से रोगग्रस्त है, उसे नियमित रूप से आपराधिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जासकता है। कानूनी रूप से पागलपन (Legal Insanity) और चिकित्सा पागलपन (Medical insanity) के बीच एक अंतर किया जाना चाहिए। न्यायालय कानूनी रूप से पागलपन के बारे में विचार करती है, न कि चिकित्सापागलपन के बारे में। अभियुक्त द्वारा अपने पागलपन को साबित करना होता है, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (संक्षेप में 'साक्ष्य अधिनियम') की धारा 105 के आधार पर उत्पन्न होता है। इसी क्रम में दयाभाई छग्गनभाई ठक्कर बनाम गुजरात राज्य (अकफ 1964 रउ 1563) के वाद में भी यह कहा गया था कि उस दशा में जहाँ अभियुक्त अदालत के सामने यह पेश करता है कि उक्त अपराध को करतेवक़्त वह विकृत-चित्त का हो गया था, तो उसे इस तथ्य को साबित करना होगा और इस परिस्थिति को साबित करने का भार अभियुक्त पर होगा।

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Legal एवं Medical insanity के बीच अंतर भारतीय दंड संहिता की धारा 84, insanity के चिकित्सा परीक्षण से अलग कानूनी परीक्षण निर्धारित करती है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भले ही व्यक्ति चिकित्सीय रूप से विकृत-चित्त का हो, परन्तु उसका कानून कीनजर में विकृत-चित्त का होना आवश्यक है (इस धारा का लाभ लेने के लिए)। भले ही कोई व्यक्ति मानसिक बीमारी का इलाज करवा रहा हो या वो रोगी हो, पर अगर कृत्य (कि वो अपराध कर रहा है) को समझता है या वोअपने कार्य की प्रकृति को समझता है और फिर कोई अपराध करता है तो उसे कानून की नजर में स्वस्थ चित्त का माना जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्णय में यह कहा गया है कि केवल "मानसिक रूप से बीमार" लोग और मनोरोगी एक आपराधिक मामले से प्रतिरक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं, क्योंकि जब अपराध किया गया, उस समयपागलपन को सिद्ध करना उनकी जिम्मेदारी है। इसलिए व्यवहार में, मानसिक रूप से बीमार हर व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं किया जाता है। और इसी प्रकार, कानून की नजर में पागलपन और चिकित्सीयरूप से पागलपन के बीच एक अंतर होना चाहिए है। सुरेन्द्र मिश्रा बनाम झारखंड राज्य [(2011) 11 SCC 495] के मामले में, यह बताया गया कि 'मानसिक रोग से पीड़ित प्रत्येक व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं किया जाता है।' यह सुझाव दिया जाता है कि विभिन्न विवादों और भ्रमों से बचने के लिए 'मानसिक पागलपन' शब्द की एक अच्छी तरह से परिभाषित परिभाषा होनी चाहिए, जो 'मानसिक रोग' और संहिता द्वारा मांगी गई 'कानून की नजर में पागलपन' और 'चिकित्सीय पागलपन' में विभेद कर सके। अपराध करने के दौरान चित्त-विकृति (unsoundness of mind) जब बात इस धारा की हो तो यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि कृत्य करने के दौरान व्यक्ति का विकृत-चित्त का होना आवश्यक है, भले वो उस कृत्य को करने से पहले या बाद में ऐसी दशा में न रहा हो। कुटप्पन बनामकेरल राज्य [(1986) Cr LJ 271 (Ker)] के मामले में यह अभिनिर्णित किया गया कि व्यक्ति का अपराध करने के दौरान विकृत-चित्त का होना आवश्यक है, और अगर ऐसा साबित हो जाता है तो अभियुक्त को इस धाराका लाभ मिलेगा। मध्य प्रदेश राज्य बनाम अहमदुल्लाह के मामले में अदालत ने यह अभिनिर्णित किया कि यह भार अभियुक्त के ऊपर है कि वो यह साबित करे की दौरान कार्य, वह विकृत-चित्त का था। इस मामले में अभियुक्त ने अपनीसास की मृत्यु कारित की थी। अदालत ने यह पाया था कि, आरोपी और बिस्मिल्ला (मृत महिला) के बीच अनबन रहती थी और यह कार्य करने के लिए अभियुक्त ने रात के समय को चुना जब वह किसी और को दिखाई न दे।आरोपी अपने साथ एक टॉर्च लेकर गया था, वह एक दीवार लांघ कर चुपके से उस जगह पहुंचा जहाँ उसकी सास (मृतका) मौजूद थी। फिर, मृत्यु कारित करने के पश्च्यात अभियुक्त काफी प्रसन्न था, जो उसके बाद केव्यवहार में प्रदर्शित हुआ। अदालत ने माना था कि यह पागलपन में किया गया कार्य नहीं था, बल्कि एक सोचा समझा अपराध था, जिसे सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध तरीके से किया गया था। अदालत ने अभियुक्त को धारा 84का लाभ देने से इंकार कर दिया था |

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विकृत-चित्त व्यक्ति के कार्य: निष्कर्ष इस लेख में हमने विस्तार से समझा कि आखिर क्षम्य (Excusable) कृत्य के अंतर्गत किन परिस्थितियों में विकृत-चित्त व्यक्ति के कार्य (धारा 84), किसी भी अपराध के लिए कब अपवाद बन सकता है। इस धारा के अंतर्गत हमने विभिन्न मामलों की मदद से यह समझा कि अभियुक्त के इरादे और इच्छाशक्ति की अनुपस्थिति उसे आपराधिक दायित्व से छूट देती है। लेकिन यह अनुपस्थिति महज़ मानसिक विकार, या सामान्य आचरण से विचलन, या किसी भी प्रकार का विचलन नहीं है, जो आपराधिक दायित्व से प्रतिरक्षा को प्रभावित करता है। इसी के साथ हम 'साधारण अपवाद' (General ’ exception) श्रृंखला के तीसरे लेख को विराम देते हैं। इस लेख में हमने 'विकृत-चित्त व्यक्ति के कार्य ' को क्षम्य कृत्य (Excusable act) के अंतर्गत समझा। हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह लेख उपयोगी लगा होगा। श्रृंखला के अगले लेख में हम इच्छा के विरुद्ध मत्तता में किये गए कार्य (धारा 85 एवं 86) को समझेंगे। आप इस श्रृंखला से जुड़े रहें क्यूंकि इस श्रृंखला में हम साधारण अपवाद को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे।

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