जलवायु परिवर्तन रोकने का सही तरीका, अमीर देशों पर लगाया जाए प्रदूषण शुल्क
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शिवकांत शर्मा। हाल में संपन्न ग्लासगो जलवायु सम्मेलन के अध्यक्ष और ब्रिटेन के उद्योग, व्यवसाय एवं ऊर्जा मंत्री अशोक शर्मा को जलवायु घोषणापत्र जारी करते हुए अपने आंसू रोकने पड़े। क्यों? क्योंकि आगरा मूल के शर्मा कोयले के प्रयोग पर भारत और चीन के रवैये से दुखी थे। दरअसल अमेरिका, यूरोप और पश्चिम एशिया के विकसित देश चाहते थे कि घोषणापत्र में कोयले का अबाधित प्रयोग चरणबद्ध तरीके से बंद करने की बात की जाए। तापमान बढ़ाने वाले प्रदूषण के लिए 40 प्रतिशत तक कोयले के उपयोग को जिम्मेदार माना जाता है। भारत, चीन और दूसरे विकासोन्मुख देशों का धर्मसंकट यह था कि उनके बिजलीघर और तमाम कारखाने कोयले से चलते हैं। दुनिया में इस समय लगभग 2500 कोयला बिजलीघर हैं। इनमें से 1082 अकेले चीन में हैं। वहां लगभग रोज एक नया कोयला बिजलीघर बन रहा है। भारत में कोयला संचालित 281 बिजलीघर हैं। उनके अलावा इस्पात और सीमेंट के कारखानों और ईंट भट्ठों आदि में भी कोयला जलता है। विकसित देशों में अधिकांश बिजलीघर गैस से चलते हैं। वहां सौर और पवन जैसे अक्षय ऊर्जा के स्नेतों से भी बिजली बनने लगी है।
भारत की समस्या यह भी है कि उसे हर साल करीब 7.5 लाख करोड़ रुपये के तेल और गैस का आयात करना पड़ रहा है और तीन लाख करोड़ रुपया तेल एवं गैस की खोज और उपभोक्ताओं के लिए सब्सिडी पर भी खर्च करना पड़ता है। कोयला भारत में प्रचुर मात्र में है। ऐसे में यदि वह तेल और गैस पर अपनी निर्भरता घटाने के लिए बिजली का विकल्प अपनाता है तो उसे चीन की तरह सैकड़ों बिजलीघर और बनाने होंगे, जो मुख्यत: कोयला संचालित होंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अक्षय ऊर्जा क्षमताएं बढ़ाने में काफी धन और समय लगेगा। जबकि आर्थिक विकास के साथ-साथ बिजली की मांग तेजी से बढ़ेगी और अकेले अक्षय ऊर्जा शायद उसे पूरा नहीं कर पाएगी। इस चुनौती से निपटने के लिए भारत विकसित देशों से स्वच्छ ऊर्जा तकनीक और उसे अपनाने के लिए जरूरी धन की मांग करने के साथ ही इस मुहिम में विकासशील देशों का नेतृत्व भी करता आ रहा है। जलवायु न्याय का भी यही तकाजा है, क्योंकि विकसित देशों के प्रदूषण से ही जलवायु आज की गंभीर स्थिति में पहुंची है। चिंता की बात यह है कि विकसित देश स्वच्छ तकनीक देने, उसे अपनाने के लिए पैसा देने को राजी नहीं। 2009 के सम्मेलन में उन्होंने वादा किया था कि वे हर साल 10,000 करोड़ डालर दिया करेंगे, जो उन्होंने आज तक पूरा नहीं किया।
आलोक शर्मा की आंखें अगर विकसित देशों की इसी नाकामी पर भी भर आई होतीं, तो कुछ बात होती, लेकिन ऐसा नहीं था। दरअसल, पिछले आधे दशक तक जलवायु परिवर्तन को लेकर कई विकसित देशों में लोगों की राय बंटी हुई थी। इसलिए वे पैसे देने के लिए सहज तैयार नहीं थे, परंतु अब उनकी राय बदलने लगी है। जहां उनकी यह राय बदली वहीं कोरोना के कारण अर्थव्यवस्थाओं पर बढ़े बोझ के कारण फिलहाल वे पैसे देने की मांग पर कान देने को तैयार नहीं। इसका ही नतीजा है कि बहुचर्चित जलवायु अनुकूलन कोष के लिए ग्लासगो सम्मेलन में मात्र 35 करोड़ डालर की रकम ही जमा हो पाई।
जलवायु न्याय को ऐसी समस्याओं की बलि चढ़ने से बचाने के लिए विश्वविख्यात अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स ने एक युक्ति सुझाई है। उनके अनुसार विकासोन्मुख देशों की ऊर्जा जरूरतों और प्रदूषण फैलाने की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के सिद्धांत को देखते हुए अमीर देशों पर प्रदूषण शुल्क लगाया जाए। इसमें ऊंची आय वाले देश पांच डालर प्रति टन और मध्यम आय वाले देश 2.5 डालर प्रति टन का प्रदूषण शुल्क भरें। यह शुल्क हर पांच साल बाद बढ़ाकर दोगुना कर दिया जाए। फिलहाल धनी देशों का सालाना प्रदूषण 1200 करोड़ टन है और मध्यम आय वाले देशों का 1600 करोड़ टन। ऐसे में इस शुल्क से सालाना करीब 10,000 करोड़ डालर जमा होने लगेंगे। इसमें से 5,000 करोड़ डालर सीधे अनुदान के तौर पर बांट दिए जाएं। शेष 5,000 करोड़ डालर विश्व बैंक, अफ्रीकी विकास बैंक और एशियाई विकास बैंक जैसी वित्तीय संस्थाओं को दिए जा सकते हैं। इससे विकासोन्मुख देशों की स्वच्छ ऊर्जा अपनाने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने में मदद हो जाएगी। वहीं प्रदूषण शुल्क घटाने के लिए विकसित देशों पर प्रदूषण कम करने का दबाव बढ़ेगा।
यदि जेफरी सैक्स की उक्त योजना मान ली जाए तो नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने और विकासोन्मुख देशों को 10,000 करोड़ डालर सालाना की सहायता देने जैसी बातें सिर्फ शिगूफा नहीं रह जाएंगी। इस समय सभी देश कुल मिलाकर 3300 करोड़ टन प्रदूषण वायुमंडल में छोड़ रहे हैं। औसत तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने संबंधी लक्ष्य पूर्ति के लिए 2030 तक प्रदूषण का यह स्तर घटाकर 2640 करोड़ टन तक लाना होगा। हालांकि, ग्लासगो में शामिल हुए 197 देशों की योजनाओं को देखें तो 2030 तक यह 4190 करोड़ टन हो जाएगा। इससे तापमान बढ़कर 2.4 डिग्री तक पहुंचने की आशंका है।
ऐसे में भारत जैसे विकासोन्मुख देशों को सोचना होगा कि कोयले के प्रयोग पर अंकुश लगाने और जलवायु न्याय की वकालत करने भर से हम जलवायु परिवर्तन की मार से नहीं बच सकते। आज भारत के लगभग हर छोटे-बड़े शहर की जलवायु इतनी जहरीली हो चुकी है कि उससे हर साल करीब 17 लाख लोगों की मौत होने लगी है। यह आंकड़ा द लैंसेट पत्रिका का है। वहीं हार्वर्ड के एक शोध के अनुसार, भारत में हर तीसरी मौत वायु प्रदूषण से हो रही है। वायु प्रदूषण में कोयला बिजलीघरों, विमानों, पेट्रोल-डीजल वाहनों, भवन निर्माण की धूल और खेतों में जलने वाली पराली, सबका हाथ है। इसलिए यह भारत के ही हित में है कि वह कोयले और पेट्रोल-डीजल का प्रयोग बंद करने और जल्द स्वच्छ ऊर्जा से सारी बिजली बनाने और उसी बिजली से चलने वाले वाहनों की तरफ बढ़े। साथ ही प्रत्येक नागरिक को भी जलवायु में स्वयं को हितधारक समझकर अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। यह बहुत बड़ा बुनियादी परिवर्तन है जो राजनीतिक आम सहमति और जन सहमति के बिना संभव नहीं।