जोखिम और हिम्मत-सत्येन्द्र सिंह-Satendra Singh

Mar 06, 2019

जोखिम और हिम्मत

राजधानी दिल्ली की सार्वजनिक बसों में रोजाना का सफर आसान बनाने और खासकर महिलाओं की सुरक्षा का इंतजाम करने के तमाम वादों और दावों की हकीकत क्या है, इसका उदाहरण मंगलवार को हुई एक शर्मनाक घटना के रूप में एक बार फिर सामने आया। दक्षिणी दिल्ली के महरौली इलाके में एक क्लस्टर बस में महिला सीट पर बैठी एक युवती के पास खड़े युवक ने बेहद अश्लील हरकत की और आपत्ति जताने पर आक्रामक भी हो गया। लेकिन युवती ने पूरी बहादुरी से उसका मुकाबला किया, उसकी पिटाई की और बस रुकवा कर आखिर उसे पुलिस के हवाले किया। दिल्ली में महिलाओं को रोज जिस जोखिम और परेशानी से गुजरना पड़ता है, उसमें यह घटना किसी को सामान्य महत्त्व की लग सकती है। पर यह घटना समूचे सामाजिक रवैये को आईने के सामने रखती और बताती है कि आधुनिकता और विकास के दावों के बीच हमारा समाज किस तरह की कुंठाओं और हीनताओं से ग्रस्त होता गया है।

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आखिर भरी बस में उस व्यक्ति के भीतर इतनी हिम्मत कहां से आई कि वह न केवल उस युवती के पास खड़ा होकर अपनी हरकतों से उसे असहज करने लगा, बल्कि आपत्ति जताने पर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा? विडंबना यह है कि जब उस युवती ने आवाज उठाई तो बस में मौजूद करीब पचास यात्रियों में से किसी ने उसकी मदद करने की कोई जरूरत नहीं समझी। यहां तक कि बस के ड्राइवर और कंडक्टर भी चुप रहे, जबकि उस महिला की मदद करना उनकी जिम्मेदारी है। बस में कोई पुलिसकर्मी तैनात नहीं था। सिर्फ एक युवक ने लड़की का साथ दिया और आरोपी को पुलिस के आने तक पकड़े रखा। इस समूची घटना में युवती की बहादुरी तारीफ के काबिल है। उसने इस आशंका के बावजूद यह हिम्मत दिखाई कि महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार करने वाले कई बार बेहद हिंसक प्रवृत्ति के भी होते हैं और अपने बचाव में जानलेवा हमला कर देते हैं। पर सच यह है कि आपराधिक मानसिकता वाले लोगों का मनोबल इसीलिए बढ़ता है कि उनके खौफ के सामने कोई आवाज नहीं उठाता। जाहिर है, यह सामाजिक रवैये की विडंबना है। सवाल है कि जो सरकारें हर कुछ दिन पर दिल्ली में घर से बाहर कहीं भी आनेजा ने के लिए महिलाओं के सफर को सुरक्षित और सहज बनाने का आश्वासन देती रहती हैं, उन्होंने क्या ऐसे इंतजाम किए हैं कि सार्वजनिक बसों में महिलाओं को आज भी ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। डीटीसी और क्लस्टर बसों की तादाद अब भी जरूरत के मुकाबले इतनी कम है कि अक्सर काफी अंतराल के बाद आने वाली बसों में लोग भरे रहते हैं और व्यस्त समय में तो इधर-उधर होने की भी गुंजाइश मुश्किल से निकलती है। ऐसे में ज्यादा परेशानी महिलाओं को होती है, जिन्हें बसों में सवार होने से लेकर उसमें मौजूद कुंठित और आपराधिक मानसिकता वाले पुरुषों की गलत हरकतों का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर महिलाएं कई तरह की मजबूरियों के बीच चुप रह जाती हैं, लेकिन अगर कोई छेड़छाड़ के खिलाफ आवाज उठाती भी है, तो उसे बाकी यात्रियों का साथ नहीं मिल पाता। सरकार और पुलिस-तंत्र की नाकामी के समांतर सवाल है कि यह किस तरह का समाज बन रहा है, जिसमें भरी बस में भी अपराधियों को ऐसी हरकत करने में हिचक नहीं हो रही और उसे ऐसा करते हुए आसपास खड़े तमाम लोग तमाशबीन रहते हैं?

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