सामाजिक सुरक्षा से बच्चों को बाहर कर सकती है बचपन को घरेलू काम की छूट
सामाजिक सुरक्षा से बच्चों को बाहर कर सकती है बचपन को 'घरेलू काम' की छूट
बाल मज़दूरी कानून में बदलाव वाला विधेयक लोकसभा में भी पास हो गया, और इसे पास करने से पहले संसद में इस पर चर्चा की रस्म भी निभाई गई। हालांकि मीडिया और जागरूक नागरिकों के बीच इस पर कम बातें हुईं, जबकि तमाम अन्य मुद्दों की तरह यह मसला भी कम संवेदनशील नहीं था, लिहाज़ा मामले में सोच-विचार में विशेषज्ञों को शामिल करने की ज़रूरत थी। लेकिन उन्हें शामिल करने में अंदेशा यह रहा होगा कि अगर विशेषज्ञों के बीच गंभीरता से विचार होने लगता तो देश की व्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों के हालात पर भी चर्चा होने लगती।
इस कानून में बदलाव का ख्याल किसके दिमाग की उपज है, इसे पता करने में तो अड़चन है, लेकिन इतना तय है कि मौजूदा सरकार के ही कुछ कर्ताधर्ताओं ने इस कानून में बदलाव की ज़रूरत महसूस की होगी। यह ज़रूरत उन्हें क्यों महसूस हुई...? इससे क्या हासिल होगा...? मौजूदा कानून में अड़चन क्या आ रही थी...? वह अड़चन कब दिखना शुरू हुई थी...? ये कुछ सवाल थे, जिन पर गंभीरता से विचार होता नहीं दिखा, सो अब, इस मामले के बहाने इन सवालों पर सार्वजनिक चर्चा शुरू होनी चाहिए।
बदलाव की ज़रूरत पर एक अटकल...
बिल्कुल साफ बात है कि तमाम कड़े काननों के बावजूद बच्चों से मज़दूरी करवाने का चलन बंद होता नहीं दिख रहा था। मुश्किल यह रही होगी कि आखिर कानून को और कितना कड़ा कर सकते हैं। बाल कल्याण के दूसरे कारगर उपाय करने लायक हमारी माली हालत बन नहीं पा रही है। ले-देकर किसी के भी दिमाग में एक ही बात आ सकती थी कि इस कानून को हल्का बना लिया जाए, ताकि कोई गैरकानूनी काम गैरकानूनी होने की जद से बाहर निकल जाए। आखिर हमें अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी तो जवाब देना पड़ता है कि हमारे यहां बच्चों का शोषण नहीं होता। बात बहुत लंबी-चौड़ी हो सकती है। आखिर में ऐसी बातें तमाम अगर-मगर में फंस जाती हैं, सो, यह बात चलाने में आसानी देखी गई होगी कि क्यों न इस कानून को ज़रा ढीला करने की बात सोची जाए... और फिर यह बात तो तय होती ही जा रही है कि देश की माली हालत के मद्देनजर बच्चों के अधिकारों या उनके कल्याण को सुनिश्चित करना बड़ा काम है।
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क्या हासिल होगा...?
एक अनुमान लगाया जा सकता है कि बेरोज़गारी के इस भयानक दौर में अपने नागरिकों को जल्दी से जल्दी किसी काम-धंधे में लगने लायक बनाने के अलावा कोई और तरीका हम सोच ही नहीं पाए। इस बात को अगर सही मानें, तो सवाल यह उठेगा के बच्चों के अलावा जो किशोर और वयस्क हैं, उनके रोज़गार की समस्या खत्म करने के लिए ही क्या हो पा रहा है। दूसरी बात यह है कि अपने संविधान के मुताबिक हमने बच्चों के शिक्षा के अधिकार को बाकायदा लिखकर रख रखा है, वह काम हमसे हो नहीं पा रहा है।
सो, घूमकर बात फिर वहीं आ जाती है कि इन बच्चों को क्यों न शुरू से ही काम पर लगाने की बात सोची जाए। यानी इससे हासिल यह होगा कि पांच करोड़ से ज्यादा बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में कुछ सुभीता हो जाएगा। सुनने में यह बात बहुतों को खराब लगेगी, और वे इस खराब बात को मानने से भी इंकार करेंगे। वे यह तर्क भी देंगे कि शिक्षा के अधिकार को जस का तस बनाकर रखा गया है, लेकिन अभी से सोचकर रख लेना चाहिए कि कई बार एक कानून बनने से दूसरे कानून का मकसद बदलने लगता है।
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मौजूदा कानून से अड़चन क्या थी...?
उद्योग और व्यापार जगत को बड़ी अड़चन थी। सस्ते मजदूर बच्चे ही होते हैं। पतली-पतली अंगुलियों वाले बच्चे कुछ कामों के लिए तो सबसे ज्यादा मुफीद समझे जाते हैं, लेकिन अब तक इनसे काम करवाना गैरकानूनी है। कुछ उद्योगों को तो इस कानून से यही बड़ी अड़चन है। उनके मुनाफे का बड़ा मार्जिन इन्हीं बाल मजदूरों से बनता है। चाय की दुकान, छोटे ढाबों और यहां तक कि घरेलू नौकर के काम के लिए ये मजबूर बच्चे ही सस्ते पड़ते हैं। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि अगर आगे चलकर इन्हें यही काम करना है तो इस काम में शुरू से ही उन्हें हुनरमंद बनाने में हर्ज क्या है। इसीलिए कुछ दिनों तक हमें ऐसा सोचने वालों की तरफ से तरह-तरह के तर्क सुनने को मिल सकते हैं।
तर्क तो यह भी सुनने को मिलेगा कि सड़कों और चौराहों पर भीख मांगने वाले बच्चों की भीड़ जिस तरह दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, उससे अच्छा तो यही है कि बच्चों को पढ़ाई के अलावा कामधाम की ट्रेनिंग लेने की छूट दे दी जाए। अलबत्ता अभी इतना ही तय हुआ है कि बच्चों से मज़दूरी उनके परिवार के ही लोग करवा पाएंगे, लेकिन एक दार्शनिक तथ्य है कि छूट की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाने की होती है। कहने को अभी चाचा-चाची, ताई-ताऊ, मामा-मामी, फूफा-बुआ जैसे रिश्तेदार ही इन बच्चों से उत्पादक काम करवा पाएंगे, लेकिन इस तरह की छूट के बाद पारिवारिक कामधंधों के नाम पर उद्योग-व्यापारों का क्या नया रूप दिखना शुरू होगा, इसका अनुमान फिलहाल लगा पाना मुश्किल है।
नए कानून का आगा-पीछा...
अब तक यही सुनते थे कि बच्चे देश का भविष्य हैं। इनकी पढ़ाई ज़रूरी है। कम से कम 14 साल तक तो बहुत ज़रूरी है। अब तक हमारी कोशिश रही है कि बच्चे से कोई घर पर भी काम न करवा सके। उसे हर हाल में स्कूल भेजा जाए। बच्चियों के लिए तो हम बेहद सतर्क रहे हैं, और न जाने कितने जागरूकता अभियान चलाते रहे है। इसके लिए हम दसियों साल से एड़ी से चोटी तक का दम लगा रहे थे। मुफ्त शिक्षा ही नहीं, स्कूल में उनके लिए मुफ्त भोजन तक का इंतजाम करते आए हैं। आजादी के बाद से अब तक इस मामले में हमने हासिल भी कम नहीं किया है, लेकिन अब हमने उन्हें बचपन से ही उत्पादक काम करने की छूट, या यूं कहें कि इन बच्चों की ट्रेनिंग के बहाने उनसे काम करवाने की छूट के लिए कानून में बदलाव विधेयक मंजूर कर दिया है। खैर, अब जब कानून बदला ही जा रहा है, तो इसका असर दूर तक जाना तय है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तात्कालिक लाभ के चक्कर में या अपनी बड़ी जिम्मेदारियों से भागने का इंतज़ाम करने के चक्कर में बड़ी-बड़ी समस्याएं खड़ी हो जाएं।
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